नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने इसे ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया है कि अनेक मामलों में मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का इस्तेमाल करते समय सावधानी बरतने के बारे में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित परंपराओं से निर्दिेशित नहीं होते हैं। न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा कि न्याय सिर्फ किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि यह किया गया नजर आना चाहिए। पीठ ने कहा कि मजिस्ट्रेटों से अपेक्षा की जाती है कि वे किसी मामले का संज्ञान लेते समय स्वंतत्र रूप से अपने विवेक का इस्तेमाल करें और यह उनके आदेश में परिलक्षित होना चाहिए। पीठ ने कहा कि यह ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ है कि शीर्ष अदालत के समक्ष आने वाले अनेक मामलों में यह नजर नहीं आता है। पीठ ने इसके साथ ही भूमि विवाद से संबंधित एक मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का वह आदेश निरस्त कर दिया जिसमें मजिस्ट्रेट का आदेश यह कहते हुये रद्द कर दिया गया था कि कानून का उल्लंघन कर शिकायत का संज्ञान नहीं लिया जाना चाहिए था।
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त करने के बाद यह मामला नये सिरे से फैसले के लिये निचली अदालत वापस भेज दिया। यह मामला भारतीय दंड संहिता और एससी/एसटी कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत एक व्यक्ति की ग्वालियर के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर जालसाजी और धोखाधड़ी की शिकायत से संबंधित है। इसमें आरोप लगाया गया था कि जमीन के एक टुकड़े का फर्जी तरीके से नाम बदली कराया गया है और उसकी जाति के नाम पर उसे धमकियां दी जा रही हैं। मजिस्ट्रेट ने 21 अप्रैल, 2012 को आपराधिक शिकायत खारिज करते हुये कहा था कि रिकार्ड में ऐसे पर्याप्त सबूत नहीं हैं जिनसे यह पता चलता हो कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है और संबंधित पक्षों के बीच विवाद दीवानी स्वरूप का है।
मजिस्ट्रेट के इस आदेश को सत्र अदालत में चुनौती दी गई जिसने सात दिसंबर, 2012 को उनका आदेश निरस्त करके इसे आगे जांच के लिये निचली अदालत के पास भेज दिया था। इसके बाद 23 जनवरी, 2013 को मजिस्ट्रेट ने इसका संज्ञान लिया और शिकायत दर्ज की। लेिकन उच्च न्यायालय ने आठ जुलाई, 2014 को मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया संज्ञान निरस्त कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि सत्र अदालत ने मामला वापस भेजकर ठीक किया था और यह संज्ञान लेना नहीं था।
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