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दलितों की रहनुमाई का इरादा एवं वंचित तबकों को आगे बढ़ाने की कवायद शुरू : आनंद कौशल

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पटना : देश में वंचित और शोषित तबकों को समाज की मुख्यधारा से जोडऩे को लेकर कई कोशिशें हो रही हैं और इसी कड़ी में बिहार में दलितों की रहनुमाई की रेस भी तेज है।

दरअसल बिहार में नीतीश सरकार ने कैबिनेट मीटिंग के बाद जो घोषणा की उसने राज्य ही नहीं देश भर में दलितों के लिए नीतीश के नजरिए को परलक्षित कर दिया है। वहीं दलितों को सशक्त बनाने के दावे को भी बड़ा बल दिया है। उक्त जानकारी आनंद कौशल, लेखक, वरिष्ठ टीवी पत्रकार एवं मीडिया स्ट्रैटजिस्ट ने दी।

उन्होंने बतायाकि राज्य की नीतीश सरकार ने देश भर में आरक्षण पर छिड़ी बहस के बीच अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के छात्रों को संघ लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा और राज्य लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर क्रमश: एक लाख रूपये और ५० हजार रूपये देने की घोषणा की है। इस घोषणा से सरकार ने दलितों के शैक्षणिकए सामाजिक और आर्थिक विकास की राहें रौशन कर दी हैं जिसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन सबसे बड़ी विडंबना है कि सरकार के केंद्र में केवल दलित ही हैं या कोई और।

नीतीश सरकार के पिछले सभी फैसलों ने एक बड़े वर्ग को प्रभावित किया है। महिलाओं और युवाओं पर ध्यान केंद्रित कर राज्य सरकार ने कई नीतियों और कार्यक्रमों की घोषणा की। पंचायत और स्थानीय नगर निकायों में ५० फीसदी आरक्षण के बाद राज्य सरकार ने महिलाओं को सभी सरकारी नौकरियों में ३५ प्रतिशत आरक्षण देकर महिला सशक्तिकरण की ठोस बुनियाद रखी।

राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना लाकर बेटियों को सशक्त, शिक्षित और समृद्ध बनाने का संकल्प लिया। इसी तरह से युवाओं को फोकस में रखकर स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड, स्वयं सहायता भत्ता एवं तकनीकी कौशल निर्माण जैसे बहुआयामी कदम उन्हें काबिल बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो रहा है। इसी तरह से अनुसूचित जाति एनं जनजाति के छात्रों को सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा पास करने पर दी जाने वाली आर्थिक मदद की घोषणा ने सच्चे अर्थों में दलितों के उत्थान के प्रति सरकार की संजीदगी का एहसास कराया है।

उन्होंने बताया कि २०११ की जनगणना के मुताबिक देश भर में दलितों की आबादी करीब २५ करोड़ है यानि देश की आबादी का कुल २४ण्५ फीसदी। इस लिहाज से वर्तमान में दलितों की आबादी कमोवेश २५ से २६ प्रतिशत के करीब होगी या फिर उससे भी ज्यादा हो सकती है। इसी तरह से बिहार में मोटे अनुमान के मुताबिक दलितों की आबादी करीब १६ प्रतिशत है।

वहीं, अनुसूचित जनजाति की आबादी राज्य की कुल आबादी का करीब १.३ प्रतिशत है। बिहार लोक सेवा आयोग के सूत्रों के मुताबिक हर साल करीब १८०० से २००० दलित परीक्षार्थी प्रारंभिक परीक्षा में सफल होते हैं। यानि सरकार के इस फैसले से हर साल करीब २००० परीक्षार्थियों को आर्थिक लाभ होगा जिनका इस्तेमाल वे आगे मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार में कर सकेंगे।

आरक्षण को लेकर पूरे देश में छिड़ी बहस के बीच अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के छात्रों को असल में सशक्त बनाने की सरकार की मुहिम के कई फायदे हैं। मसलन दलितों को आर्थिक सहायता देकर सरकार उनके सर्वांगीण विकास की बुनियाद रख रही है। जिस तरह से पूरे देश में स्कूली शिक्षा में बच्चों के ड्राप आउट की गंभीर समस्या है उसने शिक्षा के स्तर को प्रभावित किया है।

जानकारी के मुताबिक जहां प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर देश भर में ड्राप आउट ४.१३ फीसदी है। वहीं, अनुसूचित जाति के बीच इसका प्रतिशत ४.४६ है जबकि अनुसूचित जनजाति के बीच ६.९३ फीसदी है। हालांकि मुस्लिम समुदाय में भी ड्राप आऊट की समस्या गंभीर है और इसका प्रतिशत ६.५४ है। इसी तरह से माध्यमिक स्तर पर सभी श्रेणियों का औसत ड्राप आऊट १७.०६ फीसदी है, जबकि अनुसूचित जाति का १९.३६ फीसदी और अनुसूचित जनजाति का २४.६८ फीसदी है। हालांकि माध्यमिक स्तर पर मुस्लिमों का ड्राप आऊट थोड़ा कम करीब २४.१२ फीसदी है।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक पिछले पांच सालों में उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की दर में २१.५ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसमें अनुसूचित जाति की भागीदारी २०१२-१३ में जहां १६ फीसदी थी वो २०१६-१७ में बढ़कर २१.१ प्रतिशत हो गई। इसी तरह से अनुसूचित जनजाति की भादीगारी जहां २०१२-१३ में ११.१ फीसदी थी वो २०१६-१७ में बढ़कर १५.४ प्रतिशत हो गई।

सबसे बड़ी चिंता की बात ये रही कि बिहार में उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रति इन दोनों दलित जातियों की हिस्सेदारी निराशाजनक रही और बिहार में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों में उच्च शिक्षा के प्रति ललक बेहद कम देखने को मिली। नीतीश सरकार ने दलितों की उच्च शिक्षा के प्रति उनकी ललक को बढ़ाने के लिए भी उन्हें प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। कम से कम जो छात्र स्नातक स्तर की परीक्षा पास करेंगे, वही सिविल सेवा की परीक्षा में बैठेंगे।

सरकार की कोशिश है कि इसी बहाने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बीच कम से कम स्नातक स्तर तक की पढ़ाई के प्रति उनकी गंभीरता ज़ाहिर होगी। इसके साथ ही शिक्षित और सशक्त बनकर ही वे अपने समाज का उत्थान कर पायेंगे। अब जो लोग नीतीश सरकार की आलोचना कर रहे हैं उनको ये ज़ाहिर हो गया होगा कि दलितों की शैक्षणिक स्थिति क्या हैघ् हालांकि ये भी बेहतर होता कि सरकार मुस्लिमों को भी आर्थिक मदद मुहैया कराती ताकि उनको भी उच्च शिक्षा के प्रति मोड़ा जा सके।

हालांकि पिछले साल संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में कुल १०९९ सफल परीक्षार्थियों में से अनुसूचित जाति के १६३ औऱ अनुसूचित जनजाति के ८९ छात्र सफल हुए हैं जिनसे ये उम्मीद की जा रही है कि वो देश के विकास में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन करेंगे। बीपीएससी की परीक्षा में उनके सफल होने से राज्य में शासन में उनकी उचित भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी और राज्य की तरक्की में उनकी भी बराबर की भागीदारी होगी लेकिन इसके साथ दो सवाल अब भी मौजूं हैं कि क्या हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सफल छात्रों को ये आर्थिक मदद दी जाएगी या केवल एक बार और दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि क्या ये आर्थिक मदद समय पर मिल पाएगी।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि नीतीश सरकार के इस ऐतिहासिक फैसले से समाज के एक बड़े तबके को बड़ा फायदा मिलेगा। हर फैसले को राजनीति के चश्मे से देखने वाले लोग नीतीश के इस फैसले की अलग-अलग समीक्षा कर रहे हैं। एक वक्त तक कांग्रेस और बाद में लालू प्रसाद के वोट बैंक रहे दलितों के असली रहनुमा नीतीश ही रहे हैं इसमें कोई शक नहीं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भी इस बड़े वोट बैंक पर कब्जा किया था और अब नीतीश दुबारा से इसे अपनी ओर जोडऩे की क़वायद कर रहे हैं। महादलितों में पासवान समेत सभी २३ अत्यंत पिछड़ी जातियों को शामिल कर नीतीश पहले ही उनके दिल और दिमाग में जगह बना चुके हैं और अब इस ताज़ा फैसले ने उन्हें दलितों के असली रहनुमा के तौर पर पेश कर दिया है।

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