यदि स्वतन्त्र भारत के इतिहास के वित्त मन्त्रियों के कार्यकलाप पर नजर डाली जाए तो अभी तक के सबसे सफल वित्त मन्त्री के तौर पर श्री प्रणव मुखर्जी उतरते हैं क्योंकि उनके पद पर रहते पूरी दुनिया में जो जबर्दस्त मंदी का दौर चला था उसकी वजह से भारत जैसी तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था वाले देशों पर भयानक मुसीबत इस तरह आ पड़ी थी कि विश्व के विभिन्न बाजारों से जुड़े भारत के समक्ष अपनी उत्पादन क्षमता को घटाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था मगर भारत की ताकत पर पूर्ण विश्वास रखते प्रणवदा ने इस मुसीबत से पार पाने के लिए जो रास्ता खोजा उसका सिरा इस देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जाकर जुड़ता था। उन्होंने वर्ष 2008-09 में शुल्क प्रणाली में संशोधन करके उत्पादन की गति को बनाये रखने का इंतजाम बांधने के साथ ही कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों काे दिए जाने वाले आवंटन को इस प्रकार बढ़ाया कि भारत के बाजारों में ही उत्पादित माल की मांग लगातार बनी रहे। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आए वैश्विक मंदी के दौर के बाद का सबसे बड़ा एेसा आर्थिक संकट था जिसमें दुनिया के आधुनिक देशों अमरीका व फ्रांस व ब्रिटेन तक के बैंक धराशायी हो रहे थे। वहां की सरकारें उन्हें धनापूर्ति करके संकट से उबारने में लगी हुई थीं।
जाहिर तौर पर इसका असर भारत पर भी पड़ सकता था मगर प्रणव दा ने भारत के सार्वजनिक या राष्ट्रीयकृत बैंकों के माध्यम से भारत की वित्तीय व्यवस्था को मजबूत बनाने का पुख्ता इन्तजाम करके निजी बैंकों के प्रति लोगों में उपज रहे अविश्वास को तोड़ डाला मगर सबसे बड़ा एेतिहासिक काम उन्होंने यह किया कि कार्पोरेट व औद्योगिक जगत को आगाह किया कि वे दुनिया भर की कम्पनियों में चल रही कर्मचारियों की छंटनी से जरा भी प्रभावित न हों क्योकि उनके उत्पादों पर शुल्क घटाकर उन्होंने इस प्रकार राहत दी है कि उनके माल का उठान भारत के बाजारों में उपयुक्त तरीके से हो सके। इसके लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती के उपाय कर दिए गए हैं। अतः भारतीय कम्पनियों में कार्यरत किसी भी कर्मचारी की छंटनी न की जाए और कम्पनियों को अपने आला अफसरों की तनख्वाह में कटौती करके इसकी भरपाई की जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय कम्पनियों ने नाममात्र की ही छंटनी की। लाखों लोगों की निजी क्षेत्र में लगी हुई नौकरियां सुरक्षित रहीं। इस वर्ष के दौरान भारत की सकल विकास वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रही, जो कि चीन की प्रगति दर से भी अधिक थी। भारत के वित्तीय इतिहास में यह एेसा उदाहरण था जिसमें समाजवादी और बाजारवादी सोच का मिश्रण काम कर रहा था। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि श्री मुखर्जी ने भारतीय कृषि व्यवस्था के विविधीकरण के लिए विभिन्न पायलट परियोजनाएं शुरू कर दी थीं जिसमें दलहन व तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा देना प्रमुख था और उत्तर पूर्वी राज्यों में कृषि के विभिन्न नए उत्पाद उपजाना शामिल था।
कार्बनिक खाद उत्पादन से लेकर भंडारण क्षमता में वृद्धि के लिए सरकारी सब्सिडी की घोषणाएं करके उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में पूजी सृजन को बढ़ावा देने की शुरूआत बहुत ही पवित्रता के साथ की। वर्तमान वित्तमन्त्री श्री अरुण जेतली ने कृषि क्षेत्र की खस्ता हालत पर हाल ही में खासी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार का मुख्य ध्यान इसी तरफ होगा। नए वर्ष का बजट रखे जाने में अब केवल 14 दिन का समय ही शेष बचा है। अतः यह देखने वाली बात होगी कि श्री जेतली इस मोर्चे पर क्या कारगर कदम उठा पाते हैं क्योंकि यह वर्ष अगले लोकसभा चुनावों का पूर्व वर्ष होगा। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि उनकी पार्टी भाजपा की कृषि क्षेत्र के प्रति नीतियां दबी हुई मानी जाती रही हैं। मूल पार्टी जनसंघ की नीति कृषि को उद्योग का दर्जा देने की रही जिसे कालान्तर में भाजपा ने संशोधित किया परन्तु केवल सजावटी राहत या उपाय करने से कृषि क्षेत्र के हालात इसलिए नहीं बदले जा सकते कि हमने बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र में पूंजी निर्माण या सृजन को हाशिये पर डाले रखा।
किसानों की कर्ज माफी इसका ठोस उपाय किसी सूरत में नहीं हो सकता। इसके लिए हमें स्व. चौधरी चरण सिंह के ग्रामीण भारत के सपने का अध्ययन कभी न कभी जरूर करना ही होगा क्योंकि चौधरी साहब ने ही वह सरल रास्ता बताया था जिससे किसान का बेटा किसान न बनकर डाक्टर या इंजीनियर बन सके। क्योंकि चौधरी साहब ने लगातार कम होती खेतों की ‘जोत’ को ध्यान में रखकर कृषि उत्पादों की मूल्य प्रणाली का वह फार्मूला सुझाया था जिससे उत्पादन बढ़ने के साथ ही किसान की आय में इजाफा हो सके। इस सन्दर्भ में पूर्व गृहमन्त्री श्री शिवराज पाटिल के पंजाब के राज्यपाल रहते इस समस्या से पार पाने के लिए जो समिति बनी थी उसकी रिपोर्ट की धूल भी झाड़ी जाने की जरूरत है। सवाल किसी पार्टी का नहीं है बल्कि देश का है और देश के गांवों में आज हालत यह है कि आलू की फसल सड़कों पर बिखरी पड़ी है और उसे खरीदार नहीं मिल रहे हैं। 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में यदि हम इस आबादी के भोजन की जरूरत को नहीं संभाल पाते हैं ताे निश्चित रूप से यह एेसी ही प्राकृतिक आपदा है जैसी बरसात आने पर नदियों में बाढ़ आ जाती है और वह आसपास बसे गांवों व कस्बों में तूफान मचा जाती है ?