आज भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ है। देश से अंग्रेजों का साम्राज्य समाप्त करने के लिए महात्मा गांधी ने 8 अगस्त, 1942 को यह आह्वान किया था और देशवासियों से अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की अपील की थी। तब द्वितीय विश्व युद्ध अपने कगार पर था और अंग्रेज भारत की जन शक्ति से लेकर धन शक्ति व अन्य स्रोतों का इस युद्ध में इस्तेमाल कर रहे थे। इसका एकमात्र उदाहरण मैं रेल सम्पत्ति का देता हूं जिसकी आधे से कुछ कम चलायमान सम्पत्ति का हस्तांतरण पश्चिमी एशियाई देशों में कर दिया गया था और भारत के बड़े-बड़े रेलवे यार्डों को सैनिक केन्द्रों में तब्दील कर दिया गया था।
महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के सम्राट के प्रति वफादारी की कसम उठाने वाली सेनाओं में भारतीयों से भर्ती होने के लिए मना किया था। तब पूरे देश के हिन्दू-मुसलमानों ने महात्मा के इस आह्वान को सिर-माथे पर लगाया था और विदेशी वस्त्रों की होली जला-जला कर अंग्रेजों को पैगाम दिया था कि उनकी हुक्मरानी के दिन अब खत्म होने वाले हैं। दरअसल यह स्वतंत्रता का ऐसा युद्ध था जिसे पूरी दुनिया बड़ी हैरानी से देख रही थी, क्योंकि महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया था।
पूरा विश्व तब महात्मा गांधी के अहिंसक सिद्धांतों की तस्दीक कर रहा था और सोच रहा था कि दुनिया के आधे से ज्यादा हिस्से पर राज करने वाली ब्रिटिश हुकूमत का एक धोती पहनने वाले गांधी की लाठी क्या कर सकती है मगर पांच साल बाद ही वह हो गया जिसके लिए साधारण भारतीय जद्दोजहद कर रहे थे और भारत को आजादी मिल गई, लेकिन पाकिस्तान का निर्माण भी इसके समानांतर हुआ और भारत दो भागों से बंट गया। इसे इस्लामी पाकिस्तान कहा गया मगर भारत पूरी तरह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित हुआ।
हमने पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत अपनी विविधतापूर्ण संस्कृति के चलते वैसा ही भारत रहेगा जैसी कल्पना इसके पुरखों ने की थी, क्योंकि मत-भिन्नता को आदर देना और दूसरे के मत को सुनना इसकी विशेषता रही है मगर सत्तर साल बाद आज का भारत भीतर से कराह रहा है और सोच रहा है कि उसकी विशिष्टता को क्यों कुछ लोग तबाह करने पर उतारू दिखते हैं। जिस लोकतंत्र को भारत ने आजाद होने पर अपनाया उसका लक्ष्य यही था कि प्रत्येक गरीब व्यक्ति का उत्थान उसकी निजी गरिमा और सम्मान को अक्षुण्ण रखते हुए किया जाए।
समाज में फैली जाति-पाति की बीमारी दूर की जाए और धार्मिक आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किसी प्रकार का भेदभाव शासन न करे, लेकिन भारत इस कार्य में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। इसका उदाहरण चंडीगढ़ में एक युवती वर्णिका के साथ एक राजनीतिज्ञ के पुत्र द्वारा किया गया आपराधिक कृत्य है। गांधी ने जब अंग्रेजों से भारत छोडऩे का आह्वान किया था उसके पीछे भारतीयों को इस तरह सशक्त करना था कि सत्ता पर एक साधारण किसान और मजदूर का बेटा या बेटी भी बैठ सके। गांधी ने स्वराज की जो परिकल्पना अपने अखबार हरिजन में बार-बार व्यक्त की थी वह यह थी कि आजाद भारत में स्त्री या युवतियों के अधिकार न केवल बराबर हों, बल्कि समाज में फैली उस विचारधारा या मान्यताओं की भी समाप्ति हो जिसमें स्त्री को अबला कहकर उसे जीवन पर्यंत आश्रिता के दायरे में कैद रखा जाता है।
गांधी केवल राजनीतिक क्रांति के अग्रदूत ही नहीं थे, बल्कि वह सामाजिक क्रांति के प्रेरणा भी थे इसीलिए उन्होंने महिला को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में जुट जाने को कहा और अपनी कांग्रेस पार्टी में उन्हें सम्मानजनक स्थान भी दिया। गांधी मानते थे कि समर्थ समाज की पहचान इस बात से होनी चाहिए कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपने से कमजोर व्यक्ति के साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है। व्यक्ति के बड़प्पन की पहचान यही पैमाना है कि बलवान व्यक्ति कमजोर व्यक्ति के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करे।
गांधी के इसी सिद्धांत पर भारत का लोकतंत्र टिका हुआ है जिसमें कमजोर विपक्ष की बात सुनने के लिए सत्ता पक्ष को आगे आना होता है और उसे बराबर का सम्मान देता है, परन्तु वर्णिका के मामले में हरियाणा के सत्तापक्ष भाजपा के लोग जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह उनकी कमजोरी को ही बयान कर रहा है। सुभाष बराला न जाने कहां जाकर छुप गये हैं और उनका अपराधी बेटा विकास बराला भी गायब हो गया है मगर सबसे खतरनाक यह है कि कुछ लोग वर्णिका की चरित्र हत्या का अभियान चलाये हुए हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को छोडऩे के लिए 21वीं सदी का भारत फिर से 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का अर्थ ढूंढ सकता है। संसद में इसकी वर्षगांठ मनाकर रस्म निभाने से बेहतर है कि हम देश में फैली अंधकारमय कुरीतियों से भारत को छुड़ाने का अभियान चलाएं।