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चीन: भारत के बाजू मत तोलो

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ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब चीन 1962 के बाद से भारत के बाजुओं को तोल रहा है। ऐसा उसने 1967 में भी किया था और 1986 में भी मगर दोनों ही बार उसे मुंह की खानी पड़ी थी लेकिन इस बार भूटान की सीमा से लगे डोकलाम पठार में सड़क बनाने के मुद्दे पर जो तेवर अपना रहा है उससे यह साबित होता जा रहा है कि वह अपनी ताकत के बूते पर मनमानी इस तरह करना चाहता है जिससे वह भारत की चारों तरफ से घेराबंदी करके इसे डराकर रख सके। वास्तव में वह इस मोर्चे पर भारत को कूटनीतिक रूप से परास्त करके अपनी जोर-जबर्दस्ती को मान्यता दिलाना चाहता है और सिद्ध करना चाहता है कि एशिया महाद्वीप में भारत की हस्ती उसके समक्ष फरियादी की रहेगी। जिस तरह पाकिस्तान को कंधे पर बिठाकर वह उसके विकास के सब्जबाग दिखा रहा है उससे उसकी रणनीतिक शतरंज को भी समझा जा सकता है मगर चीन एक तथ्य भूल रहा है कि पूरे एशिया में उसका विभिन्न देशों में भारी पूंजीनिवेश होने के बावजूद उसके प्रति इन देशों की जनता में अविश्वास का भाव है जबकि भारत के प्रति उनका विश्वास बहुत गहरा है। इसकी वजह दोनों देशों का इतिहास है।

हमारी सबसे बड़ी पूंजी लोकतंत्र है जिसे एशिया समेत अफ्रीका व अन्य महाद्वीपों के देश बहुत सम्मान से देखते हैं। चाहे श्रीलंका हो या बंगलादेश अथवा म्यांमार या मालदीव या फिर नेपाल या भूटान, सभी मुल्कों में भारत को एक दोस्त के रूप में देखा जाता है जबकि चीन को एक निवेशक के रूप में देखा जाता है जिसका मुकाबला दुनिया के दूसरे सबसे बड़े निवेशक अमरीका से है। डोकलाम के मुद्दे पर जापान से हमें समर्थन मिला है मगर इससे बांस पर चढ़कर कूदने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि जापान व अमरीका विश्व स्तर पर एक-दूसरे के गहरे सहयोगी हैं। सबसे पहले भारत की सरकार को वह रास्ता निकालना होगा जिससे किसी भी सूरत में भारतीय उपमहाद्वीप चीन व अमरीका के बीच की जंग का अखाड़ा न बने। चीन ने हिन्द महासागर व अरब महासागर क्षेत्र में जिस तरह अमरीकी फौजी जंगी बेड़ों का मुकाबला करने के लिए पैंतरेबाजी की है उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम एशियाई देशों का भविष्य आने वाले समय में किस तरह बदल सकता है। यह जगजाहिर है कि चीन ने भारत द्वारा वियतनाम के समुद्री क्षेत्र में तेल खोज के अनुबंधों का विरोध किया था और कहा था कि यह विवादास्पद क्षेत्र है मगर भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने अपनी वियतनाम यात्रा के दौरान इन अनुबंधों को हरी झंडी देते हुए कहा था कि भारत पिछले चार दशकों से इस प्रकार के कार्य एक सार्वभौमिक देश की सरकार के साथ कर रहा है।

यह दो संप्रभु देशों के बीच का समझौता है जिससे किसी तीसरे देश को कोई लेना-देना नहीं है। यह संयोग नहीं था कि जब श्री मुखर्जी वियतनाम की यात्रा पर थे तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत की यात्रा पर थे। वास्तव में यह मोदी सरकार की चीन को चेतावनी थी कि वह भारत को अपनी ताकत के रुआब में नहीं रख सकता। भारत अपने निर्णय अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखकर लेता रहेगा और चीन के साथ अपने विवादों को बराबरी के स्तर पर निपटाता रहेगा, लेकिन चीन ने डोकलाम विवाद के चलते ही 15 अगस्त को लद्दाख सीमा पर अपने सैनिकों को भारतीय सैनिकों से भिड़ाने की रणनीति अपना कर संदेश देना चाहा कि वह उसे तंग करने के दूसरे रास्ते भी अख्तियार कर सकता है जबकि दोनों देशों के सीमा क्षेत्र में शांति व सौहार्द कायम करने के संबंध में 1993 के बाद से कई समझौते हो चुके हैं जिससे दोनों देशों के सैनिकों के बीच सीमा इलाके को लेकर अपनी-अपनी अवधारणा के चलते किसी प्रकार का संघर्ष न हो सके। इनमें ‘बैनर ड्रिल’ प्रमुख है। साल में कम से कम पांच सौ बार ऐसी बैनर ड्रिल दोनों तरफ के सैनिक करते हैं और बताते हैं कि वे अपने-अपने इलाकों में हैं। बाद में कमांडरों की बैठक करके इसे सुलझा लिया जाता है परन्तु डोकलाम में चीन लगातार झूठ पर झूठ बोलकर भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहता है कि वह उसके और भूटान के बीच से हट जाए और उसे अपनी मनमर्जी करने दे। भारत यह कभी गंवारा नहीं कर सकता क्योंकि भूटान की राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी उसकी है और इससे ही सटी भारत की सीमा है और उत्तर पूर्वी राज्यों को जोडऩे वाली सड़क है जो इससे कुछ कि.मी. दूर ही है।

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को भी चीन की हठधर्मिता से भारी खतरा पैदा हो सकता है मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि डोकलाम पठार भूटान के प्रशासनिक नियंत्रण में है जिसे चीन विवादास्पद बताता है और इसे बातचीत से सुलझाने को लेकर दोनों देशों के बीच वार्ता तंत्र स्थापित है। जायज तौर पर किस तरह चीन इस क्षेत्र में सड़क बना सकता है मगर इसे पाकिस्तान ने बुरी आदत डाल दी है कि वह पाक अधिकृत कश्मीर में अपनी विभिन्न परियोजनाएं लागू कर रहा है। भारत किसी भी तौर पर भूटान को विवादास्पद बनने नहीं दे सकता। तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार करके हमने चीन पर बने रहने वाले मनोवैज्ञानिक दबाव को पहले ही समाप्त कर दिया है। यह भूल हम कर चुके हैं और बदले में अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को झेल रहे हैं मगर इन समस्याओं का हल फौजी नहीं है। असलियत यह है कि चीन भी इसे सहन नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करते ही वह पूरे एशिया में अपनी साख को गंवा बैठेगा। भारत को इसी दांव पर खुलकर खेलना होगा और चीन के होश दुरुस्त करने होंगे क्योंकि चीन एशिया की ही नहीं दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत बनना चाहता है इसलिए हमें चीन के बाजुओं को तोलने का रास्ता ढूंढना होगा।

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