मध्यप्रदेश की चित्रकूट विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के प्रत्याशी की धमाकेदार जीत हुई है। बिना शक यह एक सीट का नतीजा है जिसके आधार पर देश के विभिन्न राज्यों के मतदाताओं के रुख का अन्दाजा लगाना पूरी तरह वैज्ञानिक नहीं होगा मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि हवा किस तरफ बहने को मोड़ ले रही है। दरअसल मध्य प्रदेश में होने वाले उपचुनावों का भारत की राजनीति में विशेष महत्व रहा है। इसी राज्य की जबलपुर लोकसभा सीट पर 1974 के शुरू में एक उपचुनाव हुआ था जिसने इस देश को तब उदीयमान नेता दिया था, उसका नाम शरद यादव है।
स्वतन्त्रता सेनानियों के खानदान में जन्मे श्री यादव तब एक छात्र नेता थे और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके राजनीति में प्रवेश कर रहे थे। वह दादा धर्माधिकारी और अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादी नेताओं की शागिर्दी में रहकर कांग्रेस की नीतियों खासकर तब की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की कथित अधिनायकवादी राजनीति के कट्टर आलोचक के रूप में युवा वर्ग में अपनी पैठ बना रहे थे। उस जबलपुर से उन्होंने उपचुनाव लडऩे का फैसला किया जो कांग्रेस का गढ़ ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले स्व. सेठ गोविन्द दास का अभेद्य किला था। यह उपचुनाव उन्हीं की मृत्यु की वजह से हो रहा था। तब श्रीमती गांधी का डंका पूरे देश में बजता था। उनकी शख्सियत के आगे विपक्ष के बड़े-बड़े सूरमा पानी भरते नजर आते थे। इस उपचुनाव में प्रचार करने श्रीमती इन्दिरा गांधी पुरानी परम्परा को मानते हुई नहीं गईं किन्तु प्रादेशिक स्तर के कांग्रेसी दिग्गजों ने जान लड़ा दी कि किसी प्रकार यह सीट उनके पास ही रहे मगर जब चुनाव परिणाम आया तो श्री यादव भारी बहुमत से विजयी घोषित हुए और दिल्ली पहुंचने पर उनका स्वागत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने जब किया तो उन्होंने घोषणा की कि मुल्क का मौसम बदल रहा है दिल्ली की सरकार गलतफहमी से बाहर आ जाये और इसके बाद जे.पी. आन्दोलन ने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में लेकर राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल डालीं।
यह पुख्ता इतिहास है इसे कोई नहीं बदल सकता। मगर अब कम लोग इस हकीकत से वाकिफ होना चाहते हैं कि जे.पी. आन्दोलन की बुनियाद गुजरात के छात्र आन्दोलन से पड़ी थी। यह छात्र आन्दोलन आम नागरिकों की जरूरतों की अनदेखी करने के विरुद्ध शुरू हुआ था। मगर तर्क दिया जा सकता है कि इस इतिहास का मध्यप्रदेश विधानसभा के एक उपचुनाव से क्या वास्ता और कैसा लेना-देना। चित्रकूट विधानसभा सीट पहले भी कांग्रेस के कब्जे में थी और उपचुनाव के बाद भी यह इसी पार्टी के कब्जे में रही मगर इस उपचुनाव को जीतने के लिए मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह धुआंधार चुनाव प्रचार किया और राज्य सरकार की सारी शक्ति झोंक दी उससे इसके महत्व का अन्दाजा हो सकता है। यह उपचुनाव 9 नवम्बर के दिन ही हुआ और इसी दिन हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी हुए। मतदान का प्रतिशत 65 से ऊपर रहा। उपचुनाव में इतना अधिक मतदान प्राय: नहीं होता है। भाजपा की सरकार पिछले तीन चुनावों से यहां चल रही है और मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह स्वयं को यहां के लोगों के ‘मामा’ कहने से थकते नहीं हैं (मालूम नहीं यह उपाधि उन्हें किसने प्रदान की या फिर स्वयं ही वह आत्ममुग्ध होकर खुद को मामा बताने लगे) मगर इससे इतना अन्दाजा जरूर लगता है कि लोगों ने इस उपचुनाव के महत्व को समझा और अपना मन्तव्य प्रकट कर दिया। यह मन्तव्य लोकतन्त्र की जीवन्तता को दर्शाता है। यह वह जीवन्तता है जो सत्ता के गरूर को धीरे से बहुत बड़ा झटका देती है। इसका अर्थ यही होता है कि जो लोग राजनीति में लोगों को मूर्ख मानते हैं उनसे बड़ा मूर्ख कोई दूसरा नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त बना देना कि उपचुनाव प्राय: वही पार्टी जीतती है जिसका शासन होता है पूरी तरह लोकतन्त्र की ताकत का मजाक उड़ाना है।
यह सुविधावादी तर्क है जिसका प्रयोग भाजपा व कांग्रेस प्राय: करती रहती हैं। परन्तु एक जमाना वह भी था जब कांग्रेस शासन में होने वाले उपचुनावों में इस पार्टी की हार पर विपक्षी जनसंघ के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से ही इस्तीफे की मांग किया करते थे। बिना शक वक्त बदल गया है और राजनीति के नियामक भी लाभ-हानि की जोड़-तोड़ में बदले जा चुके हैं मगर जो कभी नहीं बदल सकता वह है मतदाता का चुनावी कौशल। और चित्रकूट तो वह स्थान है जहां बड़े-बड़े मुसीबतजदा आकर राहत की उम्मीद करते हैं। यहीं पर एक जमाने के भाजपा के व्याख्याकार रहे स्व. नानाजी देशमुख ने अपना अन्तिम समय बिताते हुए विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह सब यहां रमे हुए ‘राम’ नाम की महिमा ही है कि व्यावहारिक राजनीति में राम अपने नाम को घसीटे जाने को कोई महत्व नहीं दे रहे हैं। उन्होंने शिवराज सिंह चौहान व्यापमं घोटाले का सच्चा ब्यौरा देने की दरकार न की हो इससे कैसे इनकार किया जा सकता है। किसानों की बुरी हालत का हिसाब-किताब न मांगा हो इससे कैसे नकारा जा सकता है। आखिरकार राम तो घट-घट वासी हैं मगर जिसकी विपदा चित्रकूट में राम ने हरने से इनकार कर दिया हो उसका किरदार क्या हो सकता है। यह तो रहीम ने पांच सौ साल पहले गोस्वामी तुलसी दास के समकक्ष रहते ही लिख दिया था:
चित्रकूट में ‘रमि’ रहे रहिमन ‘अवध’ नरेश,
जा पर विपदा परत है तेहि आवत इही देश।