राज्यसभा में आज जनता दल(यू) सांसद अली अनवर अंसारी ने देश में सफाई कर्मचारियों की व्यथा को उठाते हुए सवाल पूछा कि कानूनी रूप से प्रतिबन्धित होने के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा जारी है जो वैज्ञानिक प्रगति का दावा करने वाले भारत के माथे पर कलंक से कम नहीं है। वास्तव में यह चिन्ता का विषय है जो हमारी वैज्ञानिक क्षेत्र में विकास व प्रगति की हेकड़ी को आइना दिखाती है। इसके साथ ही यह भी शर्मनाक है कि भारत में गटर में उतर कर सफाई कर्मचारियों की मृत्यु के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। पिछले ढाई साल में ढाई हजार के लगभग ऐसे सफाईकर्मियों की मृत्यु हो चुकी है जो गटर की सफाई के काम में लगे थे। इनमें से अधिसंख्य की मृत्यु जहरीली गैसों की वजह से हुई। यदि हम ऐसे सामान्य क्षेत्र में विज्ञान की मदद नहीं ले पा रहे हैं तो हमारी अन्तरिक्ष विज्ञान में नये कीर्तिमान स्थापित करने की बातें निरर्थक हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर रहते हुए सबसे मुश्किल काम करने वाले लोगों का जीवन स्तर यदि हम नहीं उठा पाते हैं तो हमारी सकल विकास वृद्धि दर के दावे निस्सार हैं। इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। वह भी तब जबकि देश में शौचालय निर्माण का अभियान स्वयं प्रधानमन्त्री ने चलाया हुआ है। इस देश में ‘सुलभ शौचालय’ का आन्दोलन कई दशकों से श्री बिन्देश्वरी पाठक चला रहे हैं और सिर पर मैला ढोने की प्रथा के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं। इस आन्दोलन से इस कुप्रथा के विरुद्ध जो जनचेतना जागृत हुई उसी की वजह से सरकार को सिर पर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ कानून लाना पड़ा।
मगर राजधानी दिल्ली के समीप ही अगर ऐसी घटनाएं होती हैं तो जाहिर है कि हम समाज रूप में संवेदनहीन हो रहे हैं। जब हम दलितों की बात करते हैं या दलित अत्याचार पर आंसू बहाते हैं तो इसी वर्ग के सबसे नीचे के पायदान पर बैठे हुए सफाईकर्मियों की हालत को भूल जाते हैं। श्री अंसारी ने उनका मुद्दा उठाकर सरकार का ध्यान इस समस्या की तरफ खींचने का काम करके पूरे वाल्मीकि समाज की भावनाओं को उजागर किया है। हम जिस स्वच्छता अभियान की बात करते हैं उसे सफल तभी बनाया जा सकता है जब हम अपने सफाईकर्मियों की दशा में सुधार करें और उनके कार्य को आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से जोड़ें और उनके कार्य को सम्मान की दृष्टि से देखें। क्योंकि जो कार्य वे करते हैं वह आधुनिकता की तरफ बढऩे का दावा करने वाले समाज का कोई दूसरा वर्ग करने के लिए राजी नहीं हो सकता लेकिन दुर्भाग्य यह है कि समाज की गन्दगी को दूर करने वाले ये लोग स्वयं सबसे ज्यादा गन्दी बस्तियों में रहते हैं। उनके बच्चे इस काम में मजबूरन धकेल दिये जाते हैं और उनकी पीढिय़ां इसमें खप जाती हैं।
भारत के ग्रामीण समाज में सबसे ज्यादा जुल्म इसी वर्ग के लोगों पर होता रहता है और हकीकत यह है कि उन्हें आज भी अछूत समझा जाता है। यह स्वतन्त्र भारत की विडम्बना है कि हमने सफाई के क्षेत्र में हाथ से काम करने की परंपरा से छुटकारा पाने पर कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया और सफाईकर्मियों को राम भरोसे छोड़े रखा हालांकि शहरों में वाहनों व कुछ मशीनों का प्रयोग जरूर शुरू हुआ मगर इनका उपयोग सीमित ही रहा। सबसे ज्यादा दुखद यह है कि हमने विभिन्न सरकारी कार्यालयों से लेकर संस्थानों तक में ठेके पर सफाई का काम कराने का चलन बढ़ा दिया जिससे इस वर्ग की हालत आज भी वहीं है जो तीस वर्ष पहले आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने से पहले थी। हम यह भूल जाते हैं कि किसी सफाई कर्मचारी की किसी सरकारी दफ्तर में पक्की नौकरी लगने से उसकी आने वाली पीढिय़ों का भविष्य संवर जाता था। उसे सभी सरकारी सुविधाएं मिलती थीं और उसके बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था सुचारू हो जाती थी जिससे बड़े होकर वह समाज के बराबर आकर खड़े हो सकते थे मगर ठेकेदारी प्रथा ने इस समाज को फिर से पत्थर जैसा बना डाला, यहां तक कि भारत की संसद में भी सफाई कर्मचारी ठेके पर ही काम करते हैं। यह विकास का विरोधाभास है क्योंकि जिस प्रकार देशभर में शौचालय बनाने के नाम पर घोटाले हो रहे हैं उससे इन सफाईकर्मियों की मुश्किलें और बढ़ रही हैं और इनकी आने वाली पीढिय़ों पर यही काम करने का दबाव बढ़ रहा है क्योंकि आर्थिक रूप से इन्हें ठेकेदारी प्रथा ने लगातार विपन्न रहने के लिये मजबूर कर दिया है।
हम संसद से लेकर सड़क तक दलितों पर अत्याचार होने का शोर मचाते रहते हैं मगर अपनी आंखों के सामने ही इस जुल्म को देखते हुए अपनी आंखें फेर लेते हैं। यह हकीकत से भागने के अलावा और कुछ नहीं है। इस देश में स्वच्छता अभियान तभी सफल हो सकेगा जब सफाई कर्मचारियों को सम्मान प्राप्त होगा और उनका कार्य वैज्ञानिक विधि से होने लगेगा तथा उनकी आर्थिक हालत में बदलाव आयेगा। अमानवीयता की हद तो देखिये कि सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया हुआ है कि गटर में किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसके परिजनों को दस लाख रुपये का मुआवजा मिलना चाहिए मगर विभिन्न संस्थान इसी में सौदेबाजी करने लगते हैं और इसमें से मोटी रकम ठेकेदार डकार जाता है।