कांग्रेस पार्टी का पिछला अधिवेशन जब राजधानी दिल्ली में ही हुआ था तो इसके मंच से तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने चेतावनी दी थी कि मनमोहन सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों के कुप्रचार का मुकाबला करने के लिए पार्टी को जमीनी धरातल से इसका विरोधी विचार पैदा करना होगा और भारत की संयुक्त संस्कृति को समावेशी विकास के दर्पण में देखना होगा। भारत में उग्रवादी विचारों की कभी भी स्वीकृति नहीं रही है अतः कांग्रेस को सभी लोकतान्त्रिक शक्तियों को, संसदीय प्रणाली को मजबूत बनाते हुए इसकी पारदर्शी जवाबदेही की व्यवस्था को पुख्ता करना होगा क्योंकि दुनिया का इतिहास साक्षी है कि संसदीय प्रणाली का इस्तेमाल करके ही एकाधिकारवादी ताकतें सत्ता तक जा पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। ये ताकतें किसी दूसरे ग्रह (प्लनेट) से नहीं आतीं बल्कि इसी पृथ्वी ग्रह पर विद्यमान होती हैं जो संसदीय प्रणाली के लचीलेपन व उदार नजरिये का लाभ उठाती हैं। अतः हमें संसदीय प्रणाली की पवित्रता को इस तरह कायम रखना होगा कि इसके नियमों का गलत लाभ न उठाया जा सके मगर इसी कांग्रेस के अधिवेशन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि वह 2-जी स्पैक्ट्रम के कथित घोटाले की जांच कर रही संसदीय जांच समिति के समक्ष स्वयं उपस्थित होने के लिए तैयार हैं। उस समय इस घोटाले की गूंज संसद से लेकर सड़क तक होने लगी थी और लोगों को लगने लगा था कि मनमोहन सरकार इस बारे में तथ्यों को छिपाने की कोशिश कर रही है।
इस मुद्दे पर समूचे विपक्ष का हमला इतना तेज था कि मनमोहन सरकार में द्रमुक के कोटे से बने सूचना प्राैद्योगिकी मन्त्री श्री ए. राजा का यह तर्क जनता के गले नहीं उतर रहा था कि 2-जी स्पैक्ट्रम का आवंटन निजी कम्पनियों को सस्ते दामों पर इसलिए किया गया है जिससे मोबाइल फोनों की पहुंच आम जनता तक ज्यादा से ज्यादा हो सके आैर यह तभी होगी जबकि मोबाइल फोन का उपयोग बहुत कम खर्च भरा होगा। उन्होंने 2-जी स्पैक्ट्रम को राशन के चावल बताते हुए कहा था कि सरकार का यह कदम गरीबों तक मोबाइल फोन पहुंचाने की नीति का अंग है किन्तु तब पूरे भारत में यह प्रचार हो गया था कि 2-जी स्पैक्ट्रम आवंटन से सरकार को एक लाख 80 हजार करोड़ रु. के राजस्व की हानि हुई है। इसकी जांच सीबीआई से कराने की मनमोहन सरकार ने ही घोषणा की थी और इसी सीबीआई अदालत ने पिछले साल ही अपने फैसले में कहा कि कहीं किसी प्रकार का कोई घोटाला नहीं हुआ परन्तु कांग्रेस अधिवेशन के मंच से तब प्रधानमन्त्री ने परोक्ष रूप से कबूल कर लिया था कि उनकी सरकार के कामकाज में शक की गुंजाइश पैदा हो गई है। यह डा. मनमोहन सिंह की स्वीकारोक्ति भी थी कि वह राजनीतिक दांवपेंचों में माहिर नहीं हैं जबकि प्रणव दा चेतावनी दे चुके थे कि हमें संसदीय प्रणाली के लचीलेपन का गैर वाजिब लाभ उठाने के प्रयासों का मुकाबला करना चाहिए। इस घटना को हुए कई साल बीत चुके हैं और कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ से विपक्षी दल की हैसियत में आ चुकी है मगर मूल सवाल जहां का तहां खड़ा हुआ है कि हमारी संसदीय प्रणाली की विश्वसनीयता में लगातार क्षरण हो रहा है और इसकी भूमिका लगातार हाशिये पर खिसकती जा रही है।
कांग्रेस पार्टी के लिए यह मुद्दा सबसे ज्यादा चिन्ता का विषय होना चाहिए क्योंकि इसी पार्टी को भारत में मजबूत संसदीय व्यवस्था देने का श्रेय दिया जा सकता है जिसके निर्विवाद रूप से पं. जवाहर लाल नेहरू प्रणेता थे। उन्हीं के सतत चिन्तनशील गंभीर प्रयासों से भारत में संसदीय प्रणाली की नींव पड़ी थी। यह बेवजह नहीं था कि भारत के पहले 1952 के आम चुनावों में पं. नेहरू ने देशभर में घूम-घूम कर लगातार छह महीने तक चुनाव प्रचार करके लोगों को समझाया था कि वे चुनावों में अपने मत का उपयोग जरूर करें क्योंकि केवल एेसा करके ही वे आजाद भारत की तरक्की में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। अतः यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह खूबसूरत प्रणाली हमें सौगात में नहीं मिली है बल्कि इसके लिए हमारे पुरखों ने अपनी जवानी अंग्रेजों की जेलों में होम की है। आगामी 16 से 18 मार्च को दिल्ली में ही कांग्रेस पार्टी का जो अधिवेशन होने जा रहा है वह देश के समक्ष खड़ी नई चुनौतियों के सन्दर्भ में होगा। इसमें सबसे बड़ी चुनौती देश में एेसे वैकल्पिक राजनीतिक सूत्र की स्थापना करने की होगी जिसका सीधा सम्बन्ध भारत की ‘दरिद्र नारायण’ संस्कृति से सीधा संवाद करना हो। यह संवाद तभी संभव है जब भारत के लोगों को धार्मिक उन्माद के घेरे से बाहर राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के दायरे में लाकर दीक्षित किया जाये। यह कार्य किसी भी तरीके से दुष्कर नहीं है क्योंकि भारत की संस्कृति में ही यह भाव रचा–बसा है। इसके साथ ही यह पहला अधिवेशन होगा जिसमें युवा श्री राहुल गांधी अध्यक्ष की हैसियत से शिरकत करेंगे। उन्हें यह स्वयं ही सिद्ध करना होगा कि इतिहास ने उनके कन्धों पर जो जिम्मेदारी डाली है उसे वह किस विश्वास के साथ आगे ले जा सकते हैं। उन पर वंशवाद की राजनीति का आरोप लगता रहता है मगर लोकतन्त्र में यह अपराध किसी भी तरह नहीं होता है क्योंकि राजनैतिक विचारधारा स्वयं में पूरा वंश होती है। देखना केवल यह होता है कि उस विचारधारा को कौन व्यक्ति आगे बढ़ाकर अपना वंश फैलाता है।
यदि कांग्रेस को उनके नेतृत्व पर भरोसा है और उनकी क्षमता कांग्रेस को आगे ले जाने की है तो विचारधारा के वंश में तब्दील होने से कौन रोक सकता है? बेशक कांग्रेस के होने वाले अधिवेशन में मौजूदा सरकार के कथित घोटाले केन्द्र में रहेंगे मगर इन्हें लेकर भारत को कमजोर दिखाने की पिछली विपक्षी पार्टी की नीति का अनुसरण किसी भी तौर पर नहीं किया जाना चाहिए बल्कि भारत को मजबूत बनाने के लिए वैकल्पिक नीतियों को सप्रमाण प्रस्तुत किया जाना चाहिए। ध्यान यह भी रखा जाना चाहिए कि कांग्रेस की विरासत उन स्व. कामराज की भी है जिन्होंने अपना बचपन छठी कक्षा की पढ़ाई छोड़कर एक कपड़े की दुकान पर नौकरी करते हुए गुजारा था और बुलन्दी इसका राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर प्राप्त की थी।