स्वतन्त्र भारत का यह जीता-जागता पुख्ता इतिहास रहा है कि सत्ता के ‘गरूर’ में जिस सरकार ने भी मीडिया के मूल सूचना के प्रकट करने के अधिकार को नियन्त्रित करना चाहा है उसके दिन पूरे होने में ज्यादा समय नहीं लगा है। सवाल किसी भी पार्टी की राज्य सरकार का हो, यह फार्मूला निर्विवादित रूप से हर समय पर खरा उतरा है। इसकी एक ही वजह है कि भारत के अनपढ़ और मुफलिस कहे जाने वाले लोगों की शिराओं में इस मुल्क की गुलामी के दौर तक में ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ हर मगरूर शासक के खिलाफ ‘इन्कलाब’ लाती रही और सत्ता को चुनौती देती रही। अतः राजस्थान सरकार का यह आदेश कि किसी भी सार्वजनिक कर्मचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का जिक्र ‘अखबार या टीवी चैनल’ तक में तब तक नहीं हो सकता जब तक कि सरकार उसकी जांच करके इजाजत न दे, लोकतान्त्रिक भारत में निरंकुश बादशाही ‘फरमान’ के अलावा कुछ नहीं है और इसकी नियति अन्ततः रद्दी की टोकरी ही होगी। पूर्व राजे-रजवाड़ों की तर्ज पर जो लोग इस मुल्क के लोगों को अपनी ‘सनक’ में हांकना चाहते हैं उन्हें आम जनता इस तरह ‘हांक’ देती है कि उनके ‘नामोनिशां’ को ढूंढने के लिए इतिहास के पन्नों तक में जगह नहीं मिल पाती। एेसी ही गलती एक बार बिहार के मुख्यमन्त्री रहे जगन्नाथ मिश्र ने की थी। उन्होंने मीडिया पर अंकुश लगाने की जुर्रत की थी मगर बिहार में अब उनके नाम के निशान ढूंढे नहीं मिलते हैं।
राजस्थान में भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए नायाब नुस्खा निकाला गया है और फरमान जारी किया गया है कि किसी भी मन्त्री, पूर्व मन्त्री या सरकारी अफसर के भ्रष्ट कारनामों को किसी अदालत में नहीं ले जाया जा सकता है, किसी भी न्यायालय को भ्रष्टाचार के आरोपी के खिलाफ सुनवाई करने का भी अधिकार तब तक नहीं होगा जब तक कि सरकार छह महीने के भीतर इस बारे में अपनी राय न दे दे। इस अवधि के दौरान यदि सरकार न्यायालय में कोई अर्जी नहीं लगाती है तो अदालत उस पर सुनवाई कर सकती है लेकिन एेसे मामले की रिपोर्ट यदि कोई पत्रकार छापने की हिम्मत करता है तो उसे दो साल की सजा तक हो सकती है। भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इस तरह के संशोधन करके सरकार केवल यह सिद्ध कर रही है कि वह ‘भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों’ के पूरे समर्थन में है और उन्हें पूरा संरक्षण देना चाहती है लेकिन देखिये किस तरह ‘समय’ खुद अपनी गिरफ्त में सत्ता में मदहोश लोगों को पकड़ता है, क्योंकि 2012 में भाजपा के ही डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी आम नागरिक की शिकायत दर्ज करने के संवैधानिक अधिकार को गैर-वाजिब शर्तों के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए और उसकी शिकायत का संज्ञान लिया जाना चाहिए मगर सरकार के इस आदेश के साथ कई गंभीर सवाल जुड़े हुए हैं। एेसा बेतुका ‘नादिरशाही’ फरमान जारी करके राज्य सरकार भारत के संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना चाहती है और पुलिस को अकर्मण्य बना देना चाहती है तथा उसे कानून की जगह अपने सनकी इरादों को पूरा करने के लिए प्रयोग में लाना चाहती है।
आगामी सोमवार को भ्रष्टाचार निरोधक कानून में यह संशोधन राजस्थान विधानसभा में रखा जायेगा जिसमें 200 में से भाजपा के 162 सदस्य हैं। इसे समर्थन देकर भाजपा के विधायक स्वयं अपनी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगा देंगे। आम नागरिक किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी के खिलाफ भ्रष्ट तरीके अपनाने के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा सकता है। पुलिस एेसा करने के लिए बाध्य होती है। पत्रकार एेसी सूचनाओं को आम जनता के संज्ञान में लाने के कर्त्तव्य से बन्धा होता है। उसका मूल कार्य सच और हकीकत की तह तक जाना होता है। सवाल यह है कि जब आम नागरिक पुलिस के रवैये से परेशान हो जाता है तो वह अदालत का सहारा लेकर अपनी शिकायत दर्ज कराता है। सरकार के इस फरमान ने तो न्यायालयों के भी हाथ बांध देने की गुस्ताखी दिखाई है। इसके साथ ही जनवरी 2012 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले का यह एक सिरे से उल्लंघन है मगर दीगर सवाल यह है कि सरकार को किस बात का डर है कि वह इस तरह का कानून लाना चाहती है ? जाहिर है कि राज्य सरकार ऊपर से लेकर नीचे तक एेसे तत्वों के साये में काम कर रही है जो जनता की गाढ़ी कमाई पर मौज मारने के लिए आपस में ही गठजोड़ करके बैठ गये हैं। अब इन्होंने यह कानूनी रास्ता खोज निकाला है कि उनके ‘पापों’ का भंडाफोड़ न होने पाये। यह सरासर लोकतन्त्र की हत्या है।
दरअसल 2013 में केन्द्र में जब मनमोहन सरकार थी तो भ्रष्टाचार को लेकर राजनीति ने सारे आयाम तोड़ दिये थे। उस समय यह प्रस्ताव राज्यसभा में पेश किया गया था कि ईमानदार सरकारी कर्मचारियों या सार्वजनिक क्षेत्र के काम में लगे निष्पक्ष लोगों की सुरक्षा के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में एेसे परिवर्तन किये जायें जिससे सरकारी पारदर्शिता भी कम न हो और मीडिया के अधिकारों का उल्लंघन भी न हो। भारत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां के भ्रष्टाचार निरोधक कानून में एक ‘चपरासी’ की हैसियत भी वही है जो ‘प्रधानमन्त्री’ की। यही वजह है कि लोकपाल विधेयक में प्रधानमन्त्री को शामिल करने का मैं शुरू से ही विरोध करता रहा हूं मगर राजस्थान सरकार ने सारी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का बांध तोड़ कर भ्रष्टाचार की गंगा अविरल बहाने का इंतजाम कर डाला है, जबकि हकीकत यह है कि मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर लगा चुके हैं। इन सभी आरोपों की सार्वजनिक रूप से जांच की जानी चाहिए थी मगर हो उलटा रहा है कि भ्रष्टाचारियों को ‘अभयदान’ देने की तरकीबें भिड़ाई जा रही हैं। महाराणा प्रताप की युद्ध स्थली ‘हल्दी-घाटी’ से क्या गूंज उठी है। भ्रष्टाचार जिन्दाबाद।