गौवंश व कुछ अन्य पशुओं के सन्दर्भ में केन्द्र की नई अधिसूचना को लेकर जो विवाद बना हुआ है उसे देखते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय का यह सुझाव कि गाय को कानूनी दर्जा देते हुए उसे राष्ट्रीय पशु घोषित करने के उपायों के बारे में सोचा जाना चाहिए, मूल रूप से भारतीय संस्कृति की अहिंसक मान्यताओं से जुड़ा हुआ सवाल है। साथ ही पशुधन संवर्धन भारतीय कृषि उद्योग का प्रमुख हिस्सा रहा है। इसके अलावा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पशुओं के साथ क्रूरता को रोकने के लिए जो आन्दोलन पश्चिमी देशों में पिछली सदी से चल रहा है उसे देखते हुए भी केन्द्र सरकार की नई अधिसूचना का महत्व है मगर भारत में यह भ्रम बन गया है कि सरकार नये आदेश की मार्फत राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है। कृषि और पशुपालन राज्यों का विशिष्ट अधिकार है जिसकी वजह से प्रत्येक राज्य के इस बाबत अलग-अलग कानून हैं। केरल, तमिलनाडु व प. बंगाल तथा उत्तर पूर्वी राज्यों से जिस तरह की आवाजें आ रही हैं उससे ऐसा लगता है कि सरकार ने नये आदेश की मार्फत विशिष्ट मांसाहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। यह समझा जाना जरूरी है कि पशु पर क्रूरता रोकने के लिए केन्द्र ने नया आदेश जारी किया है, देश के वैध बूचडख़ानों को बन्द करने के लिए नहीं। अधिसूचना में यह खास तौर पर कहा गया है कि किसी धार्मिक कार्य के नाम पर भी चिन्हित पशुओं गाय, बछड़े या गौवंश के किसी अन्य सदस्य समेत भैंस या ऊंट का भी कारोबार इन्हें वध करने की नीयत से नहीं किया जा सकता है और न ही इनकी सार्वजनिक स्थानों पर बलि या कुर्बानी आदि दी जा सकती है। इन पर क्रूरता रोकने की गरज से इनकी खरीद-फरोख्त को नियमित किया गया है।
कृषि क्षेत्र या ग्रामीण क्षेत्र में इनके उपयोग पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है और न ही इससे जुड़े नियमित व्यवहारों पर लेकिन इस बीच राजस्थान उच्च न्यायालय का यह सुझाव स्थिति को उलझाने वाला है कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाये। किसी भी पशु या पक्षी को राष्ट्रीय घोषित करने के निश्चित नियम होते हैं। इसमें उसकी दुर्लभता प्रमुख शर्त होती है। वस्तुत: गाय का मुद्दा राष्ट्रीय पशु घोषित करने का नहीं है बल्कि इसे सांस्कृतिक पशु घोषित करने का है। गाय सामान्य ग्रामीण जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जीवन पर्यन्त गाय का उपयोग भारत के सामाजिक जीवन में बना रहता है। अत: इसका भक्षण करने का ख्याल सपने में भी भारतीय नहीं कर सकता। धार्मिक तौर पर गाय को हिन्दू देववासिनी मानते हैं। वैज्ञानिक तौर पर यह पशु ऐसा है जो आक्सीजन ग्रहण करके आक्सीजन को ही बाहर सांस से छोड़ता है। यदि इसका वध किया जाता है तो इसके शरीर से वायु मंडल को प्रदूषित करने वाली गैस निकलती है। अत: राजस्थान उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश का यह कथन गौर करने लायक है कि गाय का शरीर एक पूरी प्रयोगशाला होता है।
विज्ञान भी जब गौवध की मनाही करता है तो क्यों कुछ लोग बीफ (गौमांस) खाने को अपना मूलभूत अधिकार मानते हैं? परन्तु भारत में हिन्दू-मुसलमानों को बांटने के लिए अंग्रेजों ने गाय को प्रमुख जरिया बनाया और ईस्ट इंडिया कम्पनी के जमाने से ही बूचडख़ाने खोलकर कम्पनी सरकार के अंग्रेज कर्मचारियों के लिए बीफ मुहैया कराने के इन्तजाम किये। स्वतन्त्र भारत में भी कुछ लोग इसे हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा बनाना चाहते हैं। यह सिर्फ केवल वोट बैंक की राजनीति के तहत किया जाता है। कथित धर्मनिरपेक्ष दल यह भूल जाते हैं कि मुसलमानों के लिए भी गाय का गोश्त हराम की श्रेणी में आता है क्योंकि इस्लाम के नबियों ने फरमाया है कि गाय के दूध में शिफा है। इसका दूध पियो मांस नहीं खाओ मगर क्या सितम बरपा किया जा रहा है कि विरोध जताने के नाम पर बीफ पार्टियां आयोजित की जा रही हैं। केरल में सरेआम बछड़े को काटा जा रहा है और तो और कच्चे गौमांस का भक्षण तक करके वहशीपन को बढ़ाया जा रहा है। विरोध का अमानुषिक स्वरूप कौन सी धर्मनिरपेक्षता है जरा कोई यह तो बताये! क्या इस देश के इतिहास से वे पन्ने हटाये जा सकते हैं कि मध्य काल में मुस्लिम आक्रान्ता गायों के झुंड को आगे रखकर हिन्दू राजाओं पर आक्रमण किया करते थे क्योंकि हिन्दू फौजें गाय पर हथियार नहीं उठाती थीं। इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए गाय को सांस्कृतिक पशु घोषित करने के लिए।