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दलित, घोड़ी और मौत

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यह देश बदल रहा है। निश्चित रूप से देश समय के साथ-साथ बदल रहा है लेकिन जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं उससे हर कोई सोचने को विवश है कि बदलाव की दिशा अच्छी है या बुरी। सांप्रदायिक दंगों की खबरों के बीच एक घटना ऐसी भी सामने आई है जिसके लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था को दोषी ठहराया जा सकता है। आजादी से पहले भी दलित वर्ग त्रस्त रहा लेकिन आज भी दलित अत्याचारों से मुक्ति के लिए छटपटाता नजर आ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज सुधारकों ने दलितों के लिए बड़े कार्य किए जिससे उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक स्थिति में सुधार हुआ।

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर और ज्योतिबाफूले के विचारों को हिन्दू समाज ने अपनाया लेकिन आज भी पुरानी मानसिकता सवर्ण जाति में मौजूद है, जो समय-समय पर अपराधों के जरिये सामने आती रही है। गुजरात में एक दलित युवा की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि वो घोड़ी पर चढ़ता था। भावनगर जिले के ठींवा गांव का 21 वर्षीय प्रदीप राठौर घोड़ी पर बैठकर घर से बाहर गया था। गांव से कुछ दूरी पर ही उसकी लाश मिली। हत्या के मामले में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है।

बाहर के गांव वाले उसे घोड़ी पर चढ़ने से मना करते थे, उसे धमकियां भी मिल रही थीं। उस पर घोड़ी बेचने के लिए भी दबाव बनाया गया था। इससे पहले भी क्षेत्र में कुछ दलितों की हत्या हो चुकी है। दलितों के नाम पर संविधान की दुहाई देकर राजनीति तो बहुत की जाती है। सियासत करने वाले महज वोटों की खातिर ऐसा करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि संविधान में दलित शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। दलित का अर्थ है पीड़ित दबा हुआ, हताश, रौंदा हुआ जिसे अस्पृश्य समझा जाता रहा, इस प्रकार की सैकड़ों जातियों को अनुसूचित जाति में रखा गया।

दलित तो किसी भी वर्ग, समाज, जाति में हो सकता है। दलित वर्ग हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है लेकिन सवर्ण जाति पर अभी भी समाज के दबे-कुचले वर्ग को अपने बराबर खड़ा नहीं होने देना चाहता। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोका गया। राजस्थान में पिछले तीन वर्षों में 38 मामलों में मुकद्दमे दर्ज किए गए। दो वर्ष पहले मध्य प्रदेश के रतलाम से आई एक तस्वीर ने चौंका दिया था, वहां एक दलित दूल्हे को हेलमेट पहनकर घोड़ी पर चढ़ना पड़ा क्योंकि गांव के सवर्ण लोग नहीं चाहते थे कि वह घोड़ी पर चढ़े। पहले तो उसकी घोड़ी छीन ली गई, फिर पथराव किया गया।

बाद में पुलिस ने दूल्हे को हेलमेट पहनाकर कड़ी सुरक्षा में बारात निकाली गई। उत्तर प्रदेश के कासगंज में तो दलित की बारात को शांति के लिए खतरा माना जाने लगा है। दो वर्ष पहले हरियाणा के कुरुक्षेत्र में दलित समाज की एक बारात पर सवर्णों ने हमला कर दिया था और कहा था कि दलित दूल्हा घोड़े की बुग्गी पर सवार होकर उनके मन्दिर में नहीं आ सकता, उसे जाना है तो रविदास के मन्दिर जाए। क्या एक दलित को घोड़ी पर बैठने का अधिकार नहीं? क्या केवल उसके घोड़ी पर सवार होने मात्र से ही सवर्णों के आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को आघात पहुंचता है?

लोकतंत्र में सभी नागरिक समान हैं तो फिर ऐसा भेदभाव क्यों? पहले दलित समुदाय के लोग घुड़चढ़ी की रस्म नहीं करते थे लेकिन आज के समाज में कोई भेद नहीं तो दलित समाज भी घुड़चढ़ी की रस्म करने लगा। लोकतंत्र से दलितों में भी समानता का भाव आया, उनमें भी आत्मसम्मान पैदा हुआ लेकिन सवर्ण जातियां इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही। अब जबकि अंतर्राज्यीय शादियां हो रही हैं, दलितों को मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार काफी पहले मिल चुका है फिर भी कुछ जातियां ऐसा मानने को तैयार नहीं कि सभी नागरिक समान हैं।

कई दशक पहले बिहार में पिछड़ी जातियों के लोगों ने जनेऊ धारण करने का अभियान चलाया तो हिंसक प्रतिक्रिया हुई थी और कई लोग मारे गए थे।गांवों के समाज में दलित कई जगह आर्थिक रूप से सवर्णों पर निर्भर हैं, इ​सलिए वे खुद भी ऐसा करने से बचते हैं जिससे सवर्ण जातियां नाराज न हों। यह एक तरह से दलितों का उत्पीड़न है। समाज के कुछ समुदाय आज भी इन्सान को इन्सान मानने काे तैयार नहीं।

हिन्दू समाज में व्याप्त रही कई कुरीतियां खत्म हो चुकी हैं। मनुष्य से मनुष्य उत्पन्न होता है, दलित, जाट, गुर्जर, ब्राह्मण या ठाकुर, उसे तो समाज बांटता है। जातिवाद विशुद्ध रूप से जन्म पर आधारित एक ऐसी सड़ी-गली व्यवस्था है जिसका कोई सामाजिक औचित्य नहीं। आज अगर दलित लोग धर्मपरिवर्तन करते हैं तो उसके लिए भी हिन्दू समाज ही जिम्मेदार है। अगर हिन्दू समाज बंट रहा है तो उसके लिए ऐसी घटनाएं जिम्मेदार हैं।

ऊना कांड के बाद द​िलत परिवारों ने हिन्दू धर्म त्यागा तो इसके लिए दोषी वो लोग हैं जिन्होंने उन पर अत्याचार किया था। ऊना कांड के बाद गुजरात भर में बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाया है। अगर ​हिन्दू समाज की शक्ति को संग्रहित करना है तो उसे सभी जातियों को सम्मान देना होगा। हमें स्वयं समाज में समानता पैदा करनी होगी, जातिवाद को समाप्त कर राष्ट्रवाद को स्थापित करना होगा। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नारा तभी सार्थक होगा जब समाज जातिवाद के झगड़ों से ऊपर उठेगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जातिवाद के नाम पर नेता राजनीतिक रोटियां सेंकते रहेंगे।

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