इंटरनैशनल कोर्ट आफ जस्टिस (आईसीजे) में भारत के दलवीर भंडारी दूसरी बार जज नियुक्त हो गए हैं। ब्रिटेन ने आईसीजे की दौड़ में शामिल अपने उम्मीदवार क्रिस्टोफर ग्रीनवुड का नाम वापिस ले लिया और भंडारी की जीत का मार्ग प्रशस्त हो गया। इंटरनैशनल कोर्ट आफ जस्टिस की स्थापना 1945 में हुई थी, तब से ऐसा पहली बार होगा जब इसमें कोई ब्रिटिश जज नहीं होगा। आईसीजे के 15 जजों में से तीन जज अफ्रीका से और तीन जज एशिया के हैं और उनके अलावा दो जज लैटिन अमेरिका और दो पूर्वी यूरोप से हैं। पांच जज पश्चिम यूरोप और अन्य इलाकों से हैं। इससे पहले भारत के जस्टिस नगेन्द्र इस संस्था के दो बार जज चुने जा चुके हैं। दलवीर भंडारी को संयुक्त राष्ट्र महासभा में 183 वोट मिले जबकि 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद में उन्हें 15 वोट हासिल हुए। इससे पहले चरण तक सुरक्षा परिषद में क्रिस्टोफर ग्रीनवुड आगे चल रहे थे। भंडारी की जीत भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है। इस बार आईसीजे के चुनाव में काफी उठापटक देखने को मिली।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में बहुमत शुरू से ही दलवीर भंडारी के साथ था लेकिन ब्रिटेन के सुरक्षा परिषद में होने के कारण पी-5 समूह, जो कि सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य हैं और उन्हें वीटो का अधिकार प्राप्त है, रोडे़ अटका रहा था। भंडारी के चुनाव से दो बातें पूरी तरह साफ हो गई हैं कि भारत के पक्ष में बड़ा पावर शिफ्ट हुआ है यानी संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत काफी प्रभावशाली हो चुका है और दूसरी बात यह है कि पी-5 समूह के देश किसी भी परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। ब्रिटेन का सुरक्षा परिषद में प्रभाव है। सुरक्षा परिषद के सदस्य देश भारत की बढ़ती ताकत से परेशान हो उठे हैं। ग्रीनवुड को क्योकि संयुक्त राष्ट्र महासभा में बहुमत नहीं मिल पाया था परन्तु ब्रिटेन और पी-5 के देश अपने में से एक भी उम्मीदवार को छोड़ना नहीं चाहते। भंडारी की जीत ने यह दिखा दिया कि पी-5 लम्बे समय तक वर्चस्व में नहीं रह सकता। जज के चयन के संदर्भ में सुरक्षा परिषद में स्थाई और अस्थाई सदस्यों में भेद नहीं रखा गया है। यानी आरसीजे के जज के चयन में सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों को कोई वीटो प्राप्त नहीं होता लेकिन जस्टिस दलवीर भंडारी के चयन में सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र चार्टर की मूल भावनाओं के विरुद्ध जाकर गुटबाजी के द्वारा लोकतांत्रिक संयुक्त राष्ट्र महासभा के बहुमत को कुचलने का प्रयास किया गया। इस तरह जहां पी-5 समूह सामान्य नियम के तहत भारतीय प्रत्याशी के विरुद्ध वीटाे का प्रयोग नहीं कर सकता, वहां उसने लाबिंग का प्रयोग किया। ब्रिटेन और पी-5 की कोशिश थी कि महासभा और सुरक्षा परिषद अलग-अलग निर्णय करती हैं तो ऐसी स्थिति में एक संयुक्त सम्मेलन द्वारा विचार होगा जिसमें महासभा और सुरक्षा परिषद के तीन-तीन प्रतिनिधि होंगे। जिनके पक्ष में सम्मेलन में आधे से अधिक सदस्य हों तो वह निर्वाचित माना जाएगा।
जब यह आवाज बुलंद हुई कि ब्रिटेन बहुमत की भावनाओं को कुचलने का प्रयास कर रहा है तो ब्रिटेन ने आश्चर्यचकित ढंग से 12वें चरण के मतदान से पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद दोनों सदनों के अध्यक्षों को संबोधित करते हुए पत्र लिखा और क्रिस्टोफर ग्रीनवुड का नाम वापिस ले लिया। ब्रिटेन ने यह कदम संभवतः विश्वभर में उसके रवैये की हो रही आलोचना के मद्देनज़र उठाया। ब्रिटेन को निराश होकर दलवीर भंडारी को जीत की बधाई देने को मजबूर होना पड़ा है। पी-5 के देश सकते में थे, ब्रिटेन ने यह संदेश दिया था कि अगर आज भारत उसे रोक सकता है तो कल कोई आैर देश उन्हें रोकेगा। इसलिए 5 देशों को साथ रहना चाहिए और उन्हें ब्रिटेन का साथ देते हुए भारतीय उम्मीदवार को जीतने से रोकना चाहिए।
ब्रिटेन जिस संयुक्त सम्मेलन तंत्र का इस्तेमाल करना चाहता था, जिसका इस्तेमाल 1921 के बाद कभी नहीं हुआ, यह एक तरह से बहुमत का अपमान होता लेकिन ब्रिटेन ने सही समय पर अपना उम्मीदवार वापिस ले लिया। भंडारी की जीत भारत के लिए लिटमस टैस्ट था क्योंकि इससे संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के समर्थकों के बारे में पता चला। भंडारी की जीत से कुलभूषण जाधव मामले में भी उम्मीद बढ़ गई है। इस्लामाबाद में मौत की सजा पाए कुलभूषण जाधव का अंतिम फैसला दिसम्बर में आ सकता है। अगर भंडारी हारते तो भारत की तरफ से आईसीजे में कोई जज नहीं होता। भंडारी की जीत किसी भी भारतीय की इस तरह के पद के लिए चुने जाने की प्रतिष्ठा से भी जुड़ी हुई थी। अब यह साफ हाे चुका है कि सुरक्षा परिषद अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पा रही। संयुक्त राष्ट्र महासभा अप्रासंगिक हो चुकी है।
महत्वपूर्ण मसलों पर वीटो पावर भी अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने में चीन ने वीटो का दुरुपयोग किया। कई मसलों पर पी-5 देशों ने स्पष्ट गुंडागर्दी की। अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष की स्थिति, आतंकवाद और अन्य चुनौितयों से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा की शक्ति में वृद्धि और सुरक्षा परिषद का विस्तार बहुत जरूरी हो गया है। सुरक्षा परिषद के देश तो महासभा में समर्थन भी नहीं जुटा सके, ऐसे में सुरक्षा परिषद अपनी साख गंवा चुकी है। संयुक्त राष्ट्र में सुधारों का वक्त आ चुका है, इसकी कार्यप्रणाली को लोकतांत्रिक बनाना बहुत जरूरी है अन्यथा इसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। भारत की अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक जीत भविष्य में सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का आधार बनेगी।