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दार्जिलिंग की ‘गोरखा’ राजनीति

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प. बंगाल के नेपाल से लगे दार्जिलिंग पहाड़ी इलाकों में पृथक गोरखालैंड बनाने की मांग नई नहीं है और पिछले 80 के दशक के समय से क्रोधी तेवरों तक के साथ यह मांग राजनीतिक सुविधा के लिहाज से बीच-बीच में उठती रहती है परन्तु आजादी के बाद से प. बंगाल की क्रान्तिकारी विचारों की जनता ने हमेशा इस मांग का पुरजोर तरीके से विरोध किया है और पूरे बंगाल की एकता के लिए आवाज उठाई है। यहां तक कि आजादी से पूर्व संविधान सभा के भीतर भी इस क्षेत्र में नेपाली मूल के लोगों का मुद्दा उठा परन्तु भारत की एकता व अखंडता तथा प. बंगाल की अस्मिता को विविधातपूर्ण उदारवादी ढांचे में रखने के लिए इसे प. बंगाल का हिस्सा ही बनाया गया। दार्जिलिंग की खूबसूरत पहाडिय़ों के बिना प. बंगाल की कल्पना कोई भारतवासी भी संभवत: नहीं कर सकता। भारत की यह विशेषता है कि इसके लगभग प्रत्येक राज्य में ऐसे स्थान हैं जो भौतिक भागमभाग के कष्टकारी वातावरण में सुकून पाने के लिए आम नागरिकों को पनाह देकर अपने आगोश में समेट लेते हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि इन स्थानों के लोगों को विकास की दौड़ से बाहर रखकर सुकून पाने के इन्तजाम किये जायें, इसकी राजनीतिक और सामाजिक आकांक्षाओं का लोकतन्त्र में उचित समावेश होना लाजिमी है। यही वजह थी कि 1988 में दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए पृथक विकास परिषद का गठन किया गया और इसे सीधे जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया। उस समय गोरखा लिबरेशन फ्रंट के नेता स्व. सुवास घीसिंग के नेतृत्व में यह कार्य किया गया था।

बाद में 2011 में इसे गोरखा प्रशासन प्राधिकरण का नाम देकर पहाड़ी लोगों को अपना शासन स्वयं चलाने के लिए जरूरी अख्तियार दिये गये मगर यह भी हकीकत है कि गोरखा लोगों की यह मांग शुरू से ही रही उनकी भाषा नेपाली को संवैधानिक मान्यता दी जाये। यह मांग प. बंगाल के प्रख्यात मुख्यमन्त्री स्व. बी.सी. राय के जमाने से ही गोरखा जनता उठाती रही परन्तु राज्य की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ने गोरखालैंड की मांग को हल्का करने के लिए जो रणनीति बनाई उससे वर्तमान में गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरंग की शक्ति में खासा ह्रास हुआ जिसका प्रमाण हमें पिछले महीने ही दार्जिलिंग व आसपास के पहाड़ी इलाकों के नगर पालिका नतीजों में देखने को मिला। क्षेत्र की तीन महत्वपूर्ण पालिकाओं पर ममतादी की तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया। इसकी प्रमुख वजह रही कि ममतादी की सरकार ने गोरखा प्रशासन प्राधिकरण के तहत लेपचा व भोटिया आदि वर्ग के लोगों के लिए पृथक विकास बोर्ड गठित कर दिये। इससे गोरखा क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों में परिवर्तन के साथ ही पृथक गोरखालैंड बनाने की मांग भी कमजोर हुई। साथ ही गोरखा प्रशासन प्राधिकरण के वित्तीय हिसाब-किताब का लेखा-जोखा करने के लिए प. बंगाल सरकार ने सख्त कदम उठाने शुरू कर दिये। इस प्रधिकरण के चुनाव अब जल्दी ही होने वाले हैं। नगर पालिका चुनाव जीतने के बाद ममतादी को यह विश्वास हो गया कि अब इस इलाके के लोगों का गोरखालैंड की मांग को पूर्व जैसा समर्थन नहीं मिलेगा। इसके अलावा कोच-राजवंशी समुदाय भी इसी क्षेत्र के आसपास ‘कामतापुर’ राज्य की मांग करता रहा है।

इसकी वजह से प. बंगाल को छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित करने की मांग का विरोध आम बंगाली नागरिक में और ज्यादा प्रबल रहता है, परन्तु ममतादी की सरकार ने त्रिभाषा फार्मूले के तहत दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्र में बंगला भाषा की पढ़ाई को जरूरी बनाने का आदेश निकाला जिसे गोरखा जन मुक्ति मोर्चा ने प. बंगाल सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करते हुए फिर से पृथक गोरखालैंड का आन्दोलन तेज करने की ठानी, परन्तु मोर्चे के नेता गुरंग इस हकीकत से वाकिफ हैं कि गोरखा इलाके में ही उनका समर्थन पहाड़ी जनता के बीच बंट गया है। इसकी वजह पृथक जातियों के लिए बने पृथक विकास बोर्ड हैं। इसी वजह से ममता बनर्जी पर गोरखा लोगों को आपस में बांटने का आरोप लगा रहे हैं। बिना शक गोरखा लोगों को अपनी भाषा पढऩे का पक्का हक होना चाहिए मगर प. बंगाल के नागरिक होने की वजह से उन्हें बंगला भाषा से कोई गुरेज भी नहीं होना चाहिए। एक राज्य की जो भी मुख्य भाषा है उसे पढऩे से कैसा विरोध लेकिन ममतादी को भी देखना होगा कि नेपाली भाषा के साथ किसी प्रकार का अन्याय न हो और इसकी वजह से गोरखा समुदाय के लोगों के विकास पर विपरीत प्रभाव न पड़े। गोरखा नागरिकों को भी इस बात पर गर्व होना चाहिए कि वे प. बंगाल के नागरिक हैं और उनका हिस्सा भी इस राज्य में उतना ही है जितना कि किसी अन्य बंगाली नागरिक का।

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