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दावोस का आर्थिक उद्घोष

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विश्व आर्थिक मंच में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया की महारथी कम्पनियों को भारत में निवेश करने का खुला न्यौता दिया है और अपील की है कि भारत के माध्यम से वे दुनिया के दूसरे अविकसित और विकासशील देशों में अपनी पहुंच बना सकते हैं। इसकी वजह उन्होंने जो बताई वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने कहा कि पहले भारत में विदेशी कम्पनियों को लालफीताशाही या अफसरशाही की दीवारों को फांदने में मशक्कत करनी पड़ती थी, अब उनका स्वागत लाल गलीचे खोल कर होता है। इसके लिए भारत ने अपनी वाणिज्यिक व व्यापार नीतियों में संशोधन किया है और इसे सरल करने के व्यापक उपाय किये हैं।

जाहिर तौर पर श्री मोदी बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण की वकालत ही कर रहे हैं और उन देशों को भारत में आमन्त्रित कर रहे हैं जिनके पास पूंजी की प्रचुर सुलभता है। 1991 से भारत इन्हीं नीतियों पर चल रहा है और समझ रहा है कि इसी रास्ते से इसकी 125 करोड़ आबादी की समस्याओं का समाधान हो सकता है। इसके साथ ही प्रधानमन्त्री ने पर्यावरण परिवर्तन और आतंकवाद को दुनिया की प्रमुख समस्याएं बताकर भारत को एेसा आदर्श स्थल बताया है जहां पूंजीनिवेश से दुनिया के दूसरे देश लाभ उठा सकते हैं मगर वास्तव में भारत की सार्वभौमिक सरकार विदेशी निवेश की पूर्ण सुरक्षा की पुख्ता गारंटी दे सकती है, उस पर मिलने वाले लाभ की नहीं। इसके साथ ही किसी भी प्रकार का विदेशी निवेश राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करके कभी भी आमन्त्रित नहीं किया जा सकता। बेशक हमने विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी निवेश की मिकदार शत-प्रतिशत कर दी है जिनमें रक्षा आयुध सामग्री का उत्पादन तक शामिल है मगर प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिक प्रौद्योगिकी व तकनीकों का हस्तांतरण भी एेसी जरूरत होती है जिसके बिना भारत के लोगों की तरक्की नहीं हो सकती। इसके साथ ही भारत के प्राकृतिक स्रोतों से लेकर आय के साधनों पर सबसे पहले भारतीयों का अधिकार है।

हम विदेशी कम्पनियों के लिए उनके माल का ‘पार्किंग’ स्थल नहीं बन सकते। यदि भारत की अर्थव्यवस्था आज तेज गति से प्रगति करती अर्थव्यवस्था मानी जाती है तो उसके पीछे इस देश के प्राकृतिक स्रोतों की बहुत बड़ी भूमिका है। हमारी खनिज सम्पदा के बेतहाशा दोहन से पर्यावरण पर ही विपरीत असर पड़ रहा है मगर सबसे गंभीर मुद्दा यह है कि बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के चलते भारत के साधारण लोगों के जीवन में कितना परिवर्तन आया है और उनकी उत्पादकता में इजाफा होकर उनकी आर्थिक स्थिति कितनी बदली है और उनके बीच पूंजी का बंटवारा किस प्रकार हुआ है तथा उनके रोजगार के साधनों में कितनी विविधता और विशालता आई है? मूल प्रश्न यह है कि विदेशी पूंजी निवेश ने हमारी देशी अर्थव्यवस्था को किस हद तक मजबूत किया है? हाल ही में मोदी सरकार ने एकल उपभोक्ता ब्रांड में शत-प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश की छूट दी है। इसके लिए कहा जा रहा है कि यह भारत के किसानों की दशा बदलेगा और ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक आधारभूत सुविधाओं का ढांचा खड़ा होगा मगर हम भूल जाते हैं कि कोई भी व्यापारिक ढांचा बिना लाभ की गरज से नहीं खड़ा हो सकता।

विदेशी कम्पनियां भारत में धर्मादा खाता खोलने के लिए कभी नहीं आएंगी। सामाजिक असमानता उनके लिए भारत की अपनी घरेलू समस्या हो सकती है और यहां की विभिन्न विषमताओं से उनका कोई ताल्लुक नहीं है। दावोस में हमने विदेशी कम्पनियों को दिल खोलकर दावत तो दी है मगर अपने कृषि क्षेत्र व ग्रामीण क्षेत्र की बदहाली को हाशिये पर डालकर। इसके साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि भारत की मजबूती इसके लोगों की मजबूती से सीधे जुड़ी हुई है। हम अभी तक दुनिया के आबादी की कमी वाले देशों को यह नहीं समझा पाये हैं कि हमारे देश में प्रबुद्ध शिक्षकों की भरमार है अतः उनके लिए वे अपने देशों के दरवाजे खोलें। हमारी सबसे बड़ी पूंजी काम करने वाले हाथ हैं। इन हाथों का इस्तेमाल वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में दुनिया के दूसरे देशों में क्यों न हो? हमें आने वाली पीढि़यों के हाथों में एेसा मजबूत और स्वावलम्बी भारत देना है जो अपने बूते पर दूसरे देशों के समकक्ष खड़ा हो सके। बेशक इसमें विदेशी सहयोग अगर हमारी शर्तों पर मिलता है तो हमें स्वीकार होना चाहिए। दावोस से यही उद्घोष पूरी दुनिया में जाना चाहिए।

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