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संसद में बहस शुरू हो !

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संसद ठप्प है, सड़कें बेचैन हैं, शहर गमजदा शोर से उबल रहे हैं, अदालतें चीख की सिसकियों से चुप हैं और आदमी सदमे में है.. मेरे भारत का लोकतन्त्र बीच चौराहे पर खड़े होकर आवाज लगा रहा है कि मैं उस भीड़ का हिस्सा नहीं हूं जो अपने ही बुलन्द मुकामों के निशानों को मिटा रही है। संसद के दोनों सदनों में जिस तरह बौखलाहट पसर रही है वह मुल्क की फिजाओं का अनकहे ही सन्देशा दे रही है कि कहीं बीच समुद्र में लहरों का एेसा जमावड़ा हो रहा है जो उफन कर किनारों की जगह बदल सकता है..जब देश में एेसा माहौल बनने लगता है तो लोग राजनीतिक मोर्चे के सिपहसालारों से अपेक्षा करते हैं कि वे बदगुमां होती फिजाओं को अपनी साइश्तादारी के इल्म से भरकर इनमें खुश्बू भरेंगे और सदमे में आये इंसानों को हादसों के न आने का यकीन दिलायेंगे मगर इसके लिए जरूरी है कि लोकतन्त्र के चारों खम्भे अपने-अपने काम को पूरी साजगारी के साथ अंजाम दें और तय करें कि सबसे बड़ा मुल्क होता है, सियासी पार्टियां बाद में आती हैं। इसके लिए सबसे पहले संसद के भीतर बहस शुरू होनी चाहिए और उन सभी मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए जो लोगों के दिलों में उठ रहे हैं।

जरूरत हो तो सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस बारे में आम सहमति बनाई जानी चाहिए क्योंकि हमारे लोकतन्त्र में संसद का रुतबा सबसे ऊंचा है और इतना ऊंचा है कि इसके दायरे में बाकी तीनों खम्भे (कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस) भी आते हैं। बेशक इसके लिए स्थापित नियमबद्ध प्रक्रिया है मगर संसद का रुतबा हर मायने में सबसे ऊंचा है क्योंकि इसकी कार्यप्रणाली संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के दिशा-निर्देशन में ही संपुष्ट होती है। हमने जिस संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया था उसी के अन्तर्गत द्विसदनीय संसद की स्थापना में यह प्रावधान भी था कि राज्यसभा के सभापति के आसन पर उपराष्ट्रपति बैैठेंगे। इसका मतलब यही था कि राज्यों के इस उच्च सदन में बैठे विभिन्न प्रदेशों के सदस्य केन्द्रीय कानूनों की समीक्षा राज्यों पर पड़ने वाले प्रभाव की रोशनी में करेंगे और उपराष्ट्रपति के संरक्षण में यह कार्य सम्पन्न होगा। यदि उत्तर पूर्वी राज्यों में भाजपा की जीत हुई है तो इन राज्यों के प्रतिनिधियों को पूरा अधिकार है कि वे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इनका जायजा प्रस्तुत करें मगर उलटी गंगा बहाकर हम इन राज्यों का भारत के साथ समन्वीकरण मजबूत करने की तरफ नहीं ले जा सकते। राज्यसभा के बजट सत्र का दूसरा चरण जब से शुरू हुआ है वह सीधे दो बजे तक के लिए स्थगित होकर बाद में शेष दिन के लिए कमोबेश स्थगित हो रहा है। लोकसभा की हालत तो और भी दयनीय है।

वह दो बजे तक का इन्तजार भी नहीं करती और अगले दिन के लिए स्थगित हो जाती है। आखिरकार इसकी वजह क्या है जो हम ज्वलन्त विषयों पर चर्चा करने की बजाय उन्हें टाल रहे हैं? विपक्ष कहता है कि संसद को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की होती है मगर लगातार शोर-शराबा और नारेबाजी करना भी विपक्ष का अधिकार नहीं होता है। हालांकि सत्तापक्ष पर यह जिम्मेदारी जरूर होती है कि वह अपनी सरकार का रुतबा कायम करने के लिए विपक्ष की हर न्यायसंगत मांग के अनुरूप सदन में चर्चा कराये जाने पर सहमत हो। अव्यवस्था के माहौल से आम जनता के मन में शंकाओं का वातावरण ही बनता है। अतः जरूरी है कि पंजाब नेशनल बैंक से जुड़े घोटाले पर सदन में चर्चा हो और एेसे माहौल में हो कि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे की बात शान्ति के साथ सुनकर दूध का दूध और पानी का पानी कर सकें। संसद से भाग कर सड़क पर हम नहीं जा सकते और यदि एेसा करते हैं तो हम जनप्रतिनिधि नहीं कहलाये जा सकते। संसदीय प्रणाली की प्रतिष्ठा बनाये रखने की जिम्मेदारी सत्ता और विपक्ष दोनों पर ही बराबर रूप से होती है तभी तो किसी भी विधेयक पर बहस कराई जाती है। केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने से लोकतन्त्र को हम बेअख्तियारी बख्शते हैं क्योंकि इनकी तसदीक केवल संसद के भीतर ही हो सकती है।

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