दिल्ली वालों ने ज़हर पी ही लिया। दिल्ली की आबोहवा को लेकर कितना ढिंढोरा मचा था, सुप्रीम कोर्ट से लेकर सोशल मीडिया तक सबने जागरूक किया था लेकिन दिल्ली वाले कहां मानने वाले थे। प्रदूषण पर काबू पाने के लिए दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर बैन था, लेकिन इस बैन का बड़ा फायदा दिल्ली की हवाआें में देखने को नहीं मिला। आंकड़ों की बात करें तो पिछली दीपावली के मुकाबले इस बार की दीपावली पर प्रदूषण तो कम हुआ लेकिन इसमें बड़ी गिरावट नहीं आई। पिछले वर्ष दीवाली पर एयर क्वालिटी इंडेक्स 431 था जबकि इस वर्ष यह इंडेक्स 319 रहा जबकि दोनों ही स्तर काफी खतरनाक हैं। 300 से 400 के बीच जो भी आंकड़ा होता है, वह काफी खतरनाक ही होता है। प्रदूषण के आंकड़े बताते हैं कि शाम 6 बजे तक वायु और ध्वनि का प्रदूषण कम था। दिल्ली वालों के लिए रात 11 बजे तक पटाखे चलाने का समय तय था लेकिन लोग 11 बजे से पटाखे फोड़ने शुरू हुए तो फिर रात दो बजे तक फोड़ते ही गए। सुबह दिल्ली ने प्रदूषण की चादर आेढ़ ली थी।
पीएम लेवल यानी जिसके तहत हवा में धूल-कण की मात्रा को मापा जाता है वह स्तर सामान्य से दस गुणा ज्यादा रहा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध का मकसद यह देखना था कि क्या दीवाली से पहले इससे प्रदूषण में कमी आती है या नहीं। पटाखों पर बैन से कोई बहुत बड़ी राहत तो नहीं मिली लेकिन एक अच्छे अभियान की शुरूआत जरूर हुई है। आने वाले वर्षों में संभव है लोग धीरे-धीरे पटाखे फोड़ना छोड़ दें। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की टीमें ग्रेडेड प्लान लागू होने से पहले एक अक्तूबर से ही सक्रिय थीं जो रोजाना सरकार को रिपोर्ट भी दे रही थीं लेकिन एक्शन टेकन रिपोर्ट नहीं मिल रही थी। इस टीम को प्रदूषण से जुड़ी मुख्यतः तीन तरह की शिकायतें मिली हैं, जिनमें धूल का उड़ना, कूड़ा जलना आैर ट्रैफिक जाम। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का कोई एक कारण नहीं। नगर निगम के सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के चलते महानगर में 67 हजार मीट्रिक टन कूड़े का ढेर लग चुका था, लोग इसे जला भी रहे थे। पटाखों से होने वाले प्रदूषण से पहले ही दिल्ली की जनता जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर थी।
गाजीपुर लैंडफिल साइट पर कई जगहों पर आग लगी हुई है आैर खतरनाक धुआं पूर्वी दिल्ली में अभी फैल रहा है। जिस जगह कूड़े का पहाड़ गिरने से लागों की मौत हुई थी वहां फिर कूड़ा डलना शुरू हो चुका है। कूड़े का पहाड़ धुएं की आगोश में है। कूड़े के ढेर में मीथेन गैस बनती है जिससे आग लगती है। सवाल यह है कि दिल्ली के हर कोने में कूड़े के ढेर लगे हुए हैं, इसका आखिर इलाज क्या है। देश के युवा उद्यमी संयुक्त अरब अमीरात, िसंगापुर, बैंकाक में शहरों का कचरा निपटाने के संयंत्र लगा रहे हैं। इन युवा उद्यमियों को वहां की सरकारें सम्मानित भी कर रही हैं। इन युवा उद्यमियों का कहना है कि वह अपना धन भारत में निवेश करने को तैयार हैं, केवल उन्हें लैंडफिल साइट पर संयंत्र लगाने के लिए एक हजार गज जमीन दे दो और हम कुछ नहीं मांगते, हम आपका कचरा साफ कर देंगे लेकिन कोई उनके प्रस्तावों पर विचार करने को तैयार नहीं। स्थानीय निकायों के अफसरों की इसमें कोई रुचि नहीं क्योंकि उन्हें इसमें व्यक्तिगत तौर पर कुछ हासिल नहीं हो रहा। बिना रिश्वत लिए तो वह प्रस्ताव को छूने को तैयार नहीं।
युवा उद्यमियों का कहना है कि वह 6-7 करोड़ का संयंत्र लगाएंगे और इसमें ईंधन गैस का उत्पादन करेंगे जिससे थर्मल प्लांट तक चलाए जा सकते हैं। अफसरशाही कुछ करने को तैयार नहीं, कचरे से निपटने की कोई योजना नहीं। पटाखों की बिक्री पर बैन तो लगा दिया गया लेकिन लैंडफिल साइट पर लगी आग से फैलते विषाक्त धुएं के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई कब होगी ? दिल्ली में वाहनों के धुएं से भी काफी प्रदूषण फैलता है। दिल्ली अाैर एनसीआर के लोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए पटाखों से पूरी तरह दूरी बना लेते तो आबोहवा की गुणवत्ता कई गुणा बेहतर हो सकती थी।
धूमधड़ाका अब बीत गया है। लोग अपने-अपने काम-धंधों में जुट गए। हवा में ज़हर घोलना कभी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा, कौन थे वे युवक जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के बाहर पटाखे फोड़ कर आदेश की धज्जियां उड़ाई थीं। वायुमंडल का प्रदूषण कम करने से ज्यादा चिन्ता अब लोगों के मानसिक प्रदूषण को कम करने की हो रही है, न तो कोई धर्माचार्य बोल रहा है, न कोई राजनेता। लोगों को मानसिकता बदलनी होगी, अगर सभ्य समाज ने स्वयं प्रदूषण फैलाना नहीं छोड़ा तो आने वाली पीढ़ियां हमारे द्वारा उगले गए ज़हर को निगलती रहेंगी, वैसे भी दिल्ली वालों को ज़हर पीने की आदत पड़ी हुई है।