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लोकतन्त्र का अपना ‘प्रमाणपत्र’

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भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि यह वक्त पडऩे पर संसद में बैठने वाले कथित बड़े लोगों को उनके छोटा होने का अहसास कराने में जरा भी नहीं हिचकता। स्वयं ही अपने को बड़ा होने और सफल रहने का प्रमाणपत्र देने वाले राजनीतिज्ञों की परख करने का इस लोकतन्त्र को प्रतिष्ठापित करने वाले आम व साधारण आदमी का पैमाना जमीनी हकीकत के जिन औजारों से तैयार होता है उससे अंजान रहने वाले राजनीतिज्ञों को अक्सर ‘दिन में तारे’ दिखाई पड़ जाते हैं, लेकिन भारत के सन्दर्भ में यह कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है क्योंकि यहां की आम जनता सत्ता की लाग-डांट व आपसी प्रतिद्वन्द्विता में उलझे राजनीतिक दलों और इनके नेताओं के हर कदम और फैसले को अपने पैमाने पर ही कस कर देखती है और उसी के अनुसार अपना प्रमाणपत्र जारी करती है। इसका सबसे ताजा उदाहरण 2014 का लोकसभा चुनाव था जिसमें लोगों ने श्री नरेन्द्र मोदी को अपना प्रमाणपत्र देकर उन्हें सत्ता का ताज सौंप दिया, जबकि उनके कद को छोटा बनाने में विरोधी दलों ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी।

इससे बहुत पहले 1971 के लोकसभा के चुनावों में स्व. इंदिरा गांधी के खिलाफ भी सभी विपक्षी दलों ने जमकर निन्दा अभियान चलाया था मगर साधारण आदमी ने उन्हें अव्वल दर्जे में पास होने का प्रमाणपत्र जारी करके लोकतन्त्र का सिरमौर घोषित किया, मगर 1977 में जब उन्हीं इंदिरा गांधी ने अपने विरोधी दलों के नेताओं को जमानत पर छोड़-छोड़ कर उन्हें परास्त करने की कोशिश करते हुए जनता से प्रमाणपत्र लेना चाहा तो जनता ने उन्हें व उनकी पूरी पार्टी को फेल कर दिया बल्कि उन्हें भी राजनीति के सभी विषयों में उत्तीर्ण न होने वाला परीक्षार्थी घोषित कर दिया और इसके उलट जमानत पर छूटी पूरी जनता पार्टी के गले में हार डालकर विशेष योग्यता के साथ सफल घोषित किया। इसके साथ ही भारत के लोकतन्त्र की एक और विशेषता है कि यह नेतृत्व पैदा करने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह कार्य यह दलीय संगठन क्षमता को ठोकर तक मारकर करता है और इस चुनौती के साथ करता है कि उसके पैदा किये गये नेतृत्व से आंख मिलाने की ताकत किसी दूसरे में नहीं बचती। अत: कांग्रेस पार्टी व भाजपा में आजकल जो शह-मात का खेल चल रहा है उसे व्यापक सन्दर्भों में देखने की जरूरत है और यह तय करने की जरूरत है कि आज के राजनीतिज्ञ जनता के अपने पैमाने से किस हद तक वाकिफ होकर हकीकत को पहचान सकते हैं।

अमेठी में भाजपा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को घेरने की शतरंज इसलिए बिछाई है जिससे वह गुजरात में प्रधानमंत्री और भाजपा को घेरने से घबरा कर अपना घर ठीक करने के लिए दौड़ें मगर इसका मतलब बहुत गंभीर है और वह यह है कि राहुल गांधी को जनता अपने पैमाने पर परखने की मुद्रा में है, मगर कांग्रेस को भी यह याद रखना होगा कि गुजरात में लगातार तीन बार यहां की जनता ने श्री नरेन्द्र मोदी को अपने ही पैमाने पर परख कर सत्ता चलाने का प्रमाणपत्र दिया था और ऐलान किया था कि उनकी जमानत में पूरा गुजरात खड़ा हुआ है, बेशक विरोधी चाहे जो भी कहते रहें। यह जनता का अपना पैमाना था जिस पर श्री मोदी अव्वल दर्जे में पास होते रहे मगर दोनों ही पार्टियां जिस तरह विकास के मुद्दे पर एक-दूसरे को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास कर रही हैं उससे भी यह सन्देश जा रहा है कि जमीन पर इसे लेकर काफी हलचल है, क्योंकि राजनीति में यह कड़े विरोधाभासों का दौर भी है, जिसमें स्वयं विकास भी फंसा हुआ लगता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ को लगता है कि अयोध्या में सरयू नदी के तट पर 196 करोड़ रु. की लागत से भगवान राम की 100 मीटर ऊंची प्रतिमा स्थापित करने से धार्मिक पर्यटन का विकास हो सकता है जबकि कांग्रेस को लगता है कि इतनी ही धनराशि से गोरखपुर और आसपास के इलाके में आधुनिक चिकित्सा से परिपूर्ण अस्पतालों के निर्माण से विकास हो सकता है। गौर से देखा जाये तो यह दौर विसंगतियों का ऐसा दौर है जिसमें राजनीतिक दर्शन और सिद्धान्त सिर के बल खड़े नजर आ रहे हैं मगर भारत का आम आदमी इतना निर्बल कभी नहीं रहा कि वह अपने लिखे को न पढ़ सके। बेशक राजनीतिज्ञ उसकी भाषा पढऩे में असफल होते रहे हैं।

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