वैज्ञानिक प्रगति, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ तथा मानव की उदासीनता की परिणति बन गया है पर्यावरण प्रदूषण। किसी भी देश की राष्ट्रीयता की जड़ें जितनी अधिक धरती से जुड़ी होती हैं, वह राष्ट्र उतना ही सबल और स्वस्थ होता है। पृथ्वी की हवा, पानी, शांति, हरियाली तथा उसके आंतरिक रहस्यों को न पहचान पाने और भौतिक सम्पन्नता के पीछे दौड़ने का परिणाम आज हमारे सामने भीषण समस्या बन गया है। समय आ गया है चेतने का, अगर अब भी नहीं चेते तो फिर परिणाम विनाशकारी होंगे। दीवाली आई नहीं लेकिन दिल्ली का दम अभी से ही घुटने लगा है। राजधानी के अधिकतर प्रदूषण मॉनिटरिंग सैंटर में आंकड़ा खतरे की चेतावनी दे रहा है। आमतौर पर शरद ऋतु में प्रदूषण बढ़ता है और लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगती है लेकिन लोग अभी से शिकायत कर रहे हैं। पिछले वर्ष दीवाली की रात दिल्ली विषाक्त गैस चैम्बर में तब्दील हो गई थी और स्मॉग घटने में लगभग एक हफ्ते का समय लग गया था। क्या दिल्ली वाले ऐसी दिल्ली फिर से देखना चाहेंगे ? क्या दिल्ली वाले विषाक्त हवा की यातना फिर सहने को तैयार हैं ? अगर नहीं तो फिर दिल्लीवासियों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दीवापली पर महानगर समेत एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाए जाने के फैसले का स्वागत करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट इस बात का आकलन करना चाहता है कि पटाखों से वायु की गुणवत्ता कितनी प्रभावित होती है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो काफी अच्छा है लेकिन इसे लागू करना बहुत ही मुश्किल है। फैसले को लेकर कई तरह की आलोचना भी हो रही है। वायु प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष ही आदेश जारी किया था कि दिल्ली एनसीआर में पटाखे नहीं बिकेंगे। बीते १२ सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने पटाखे बेचने पर लगी रोक को कुछ शर्तों के साथ हटा दिया था। अब फिर शीर्ष अदालत ने पटाखों की बिक्री को प्रतिबंिधत किया है।
इस समय हरियाणा, पंजाब में किसानों के पराली जलाने, गाड़ियों से निकलने वाला धुआं, पटाखों का धुआं आपस में मिलकर प्रदूषण बढ़ा देते हैं। भारत में राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक पीएम 2.5 का स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूिबक मीटर से अिधक नहीं होना चाहिए, जबकि पीएम-10 के लिए यह स्तर 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए लेकिन इस समय दिल्ली के व्यस्ततम क्षेत्रों में पीएम-10 का स्तर 150 और पीएम 2.5 का स्तर 250 से लेकर 543 तक पहुंच चुका है जो काफी खतरनाक है। वर्ष 2018 में केन्द्र और राज्य सरकारों ने मिलकर एक कार्ययोजना तैयार की थी। इसके तहत वायु प्रदूषण से जुड़ी समस्याओं का निपटारा एक तय समय सीमा में करने का दावा किया गया था। इस कार्ययोजना में पराली जलाने जैसी समस्या का हल अधिकतम छह महीने के भीतर करने की बात कही गई थी, लेकिन जमीनी हकीकत देखकर यह कहा जा सकता है कि सरकार इस कार्ययोजना को लेकर गंभीर नहीं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्रािधकरण और स्वयं सुप्रीम कोर्ट की सख्ती भी प्रभावहीन साबित हो रही है।
हरियाणा, पंजाब में पराली जलाने के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं। पंजाब सरकार ने तो केन्द्र से इसकी एवज में फंड की मांग कर दी है। पराली के निपटान का कोई कारगर तरीका नहीं ढूंढा गया। वर्ष-2015 में तैयार कार्ययोजना में वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के स्तर को भी तीन माह में कम करने की बात कही गई थी जिसे अभी तक पूरी तरह अमल में नहीं लाया जा सका। दिल्ली सहित एनसीआर में आने वाले सभी राज्य वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कोई ठोस एक्शन प्लान नहीं बना पाए। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का कारण सड़कों की धूल जिसका स्तर 38 फीसदी है और वाहनों के उत्सर्जन का स्तर 20 फीसदी भी है। सड़कों पर, पटरियों पर गंदगी आम देखी जा सकती है। दिल्ली में नई कारों की बढ़ती संख्या से हालात काफी बदतर हो चुके हैं। राजधानी में सार्वजनिक परिवहन सेवाओं की हालत काफी दयनीय है। दिल्ली परिवहन निगम को नई बसों की जरूरत है। मांग 4700 नई बसों की थी लेकिन डीटीसी ने केवल एक हजार नई बसों की खरीद को मंजूरी दी है। अकेले मैट्रो इतनी बड़ी आबादी का बोझ सहन नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खबर फैलते ही लोग पटाखे खरीदने दुकानों पर उमड़ पड़े, दुकानों पर अचानक भीड़ बढ़ गई। लाखों के पटाखे बिक गए। दुकानदार कहते रहे अभी उनके पास आदेश नहीं आया, जब आएगा तो दुकानें बंद कर देंगे। साफ है कि हम लोग भी ज्यादा गंभीर नहीं। यह भी सही है कि करोड़ों का धंधा चौपट हो चुका है। इसकी भरपाई मुश्किल है। समूचा पटाखा उद्योग प्रभावित हो गया है लेकिन क्या महज व्यापार के कारण लोगों को भगवान भरोसे छोड़ा जा सकता है, क्या लोगों को बीमारियों के मुंह में धकेलना जायज होगा ? सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को मानवीय दृष्टिकोण से देखना होगा लेकिन सवाल यह भी है कि क्या कानून की सख्ती से इस फैसले को लागू किया जा सकेगा ? लोग कहां मानेंगे, पटाखे तो लोग बजाएंगे ही। जरूरत है संवेदनशील ढंग से सोचने की। सरकारों को भी चाहिए कि केवल पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध से ही एनसीआर में हवा स्वच्छ नहीं होगी बल्कि वाहनों का उत्सर्जन, सड़कों पर उड़ती धूल और कचरे के पहाड़ों के िनपटान से ही हवा साफ होगी। समस्या के मूल कारणों को जड़ से खत्म करने के लिए ठोस योजना बनानी होगी।