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कि पल दा भरोसा यार पल आवे न आवे, कि दम दा भरोसा यार दम आवे न आवे

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यह तो हम सदियों से सुनते आ रहे हैं परन्तु सुनते हैं और साथ ही साथ भूल जाते हैं। पिछले दिनों इतने हादसे सुने-देखे कि हर व्यक्ति को झकझोर कर रख दिया। किसी भी व्यक्ति का एक मिनट का भरोसा नहीं फिर भी हमेशा मेरा-तेरा के चक्कर में कोई किसी का हक मार रहा है, कोई किसी को धोखा दे रहा है। ‘सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं।’ हमें ईश्वर ने क्या प्रवृत्ति दी है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों का ​िफक्र कर बैठते हैं। अपने लिए यह बना लें, बच्चों के लिए यह बना लें आैर आगे पीढ़ी के लिए भी कुछ ऐसा कर जाएं कि हम जब किसी के संस्कार रस्म में जाते हैं तो बहुत दुःख लगता है कि बेचारा या बेचारी चले गए और ऐसा सोचते ही नहीं कि हमने भी चले जाना है या अक्सर वहां यह फीलिंग भी आती है कि हम सबने भी चले जाना है। यही जिन्दगी है, कुछ बुरा नहीं करेंगे, अच्छे काम करेंगे परन्तु जैसे ही उस स्थान से वापस आते हैं, 10 मिनट नहीं लगते, सब भूल जाते हैं आैर दुनिया के मोह-जाल में फंस जाते हैं। पिछले दिनों तूफान से हुई मौतें आैर अचानक पुल गिरने से जिन लोगों का कोई कसूर नहीं था, जिन्होंने एक पल के लिए नहीं सोचा होगा, कई प्लानिंग भी की होंगी परन्तु जिस तरह मृत्यु ने उनको गले लगाया, हर कठोर से कठोर व्यक्ति का दिल पसीज गया होगा, दहल गया होगा। हर किसी ने सोचा होगा कि आज से अच्छे पुण्य के कार्य करेंगे, अगला पल आना भी है कि नहीं।

यह कलियुग है परन्तु इस कलियुग में भी बहुत से अच्छे लोग हैं जो अच्छे कार्य करते हैं, अच्छा सोचते हैं, जिसकी वजह से यह संसार चल रहा है अन्यथा तो इस संसार में भाई भाई का सगा नहीं, बच्चे माता-पिता से लड़ रहे हैं, आये दिन Divorce सुनने को आ रहे हैं तो यह संसार चल कैसे रहा है। यह संसार उन्हीं लोगों के दम पर चल रहा है जो कुछ न कुछ अच्छा कर रहे हैं क्योंकि बूंद-बूंद से सागर भरता है। ऐसे ही कुछ अच्छे व्यक्तियों के ​अच्छे कार्यों से यह संसार आगे बढ़ रहा है। अगर समाज में बुरे लोगों की कमी नहीं तो अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। हमारी भारतीय संस्कृति और संस्कारों को आगे ले जाने वाले लोगों को मैं नमन करती हूं और उनके आगे नतमस्तक भी हूं और उनकी लम्बी स्वस्थ आयु के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूं।

जैसे कि मैं समय-समय पर आप सबसे अपने रोजमर्रा जिन्दगी के काम बताती रहती हूं परन्तु फिर भी मेरे दो मुख्य कार्य मैं ​िदल से करती हूं। एक तो वरिष्ठ नाग​िरक केसरी क्लब द्वारा बुजुर्गों के लिए काम करना, दूसरा चौपाल द्वारा जरूरतमंद लड़कियों काे आर्थिक रूप से सशक्त कर स्वावलम्बी बनाना, दोनों कामों के लिए लोगों की सोच में फर्क है। चौपाल के लिए अधिक लोग आगे आते हैं क्योंकि यह एक बहुत ही पुण्य का कार्य है कि जरूरतमंद बेटियों को अपने पांव पर खड़े करना। वैसे भी हम सब लोगों की सोच होती है कन्यादान या जरूरतमंद लड़कियों की शादी करना, गऊ दान करना बहुत पुण्य का कार्य है। इसी सोच से हमारा चौपाल का काम बहुत तेज गति से आगे बढ़ रहा है।

दूसरा कार्य बुजुर्गों का है जिसमें मेरी दिन-रात की मेहनत है, बड़ी भावनाओं से काम होता है परन्तु इसके लिए वही लोग आगे आते हैं जो बहुत महान हैं या जिनकी सोच बहुत ऊंची है क्योंकि ज्यादातर लोगों की सोच है कि बुजुर्ग अपनी जिन्दगी काट चुके हैं, इनका क्या और यह आज हैं कल नहीं परन्तु कुछ अच्छे लोग भी हैं जो समय-समय पर मेरा उत्साह बढ़ाते हैं जैसे कि पिछले कई सालों से हम वरिष्ठ लोगों की सेहत के लिए महामृत्युंजय का पाठ करते हैं। जो वातावरण बनता है वो किसी स्वर्ग से कम नहीं होता परन्तु उस वातावरण को बनाने में मेरी पूरी टीम और ब्रांच हैड कड़ी मेहनत करते हैं परन्तु सबसे ज्यादा जो भावनाएं इस समय दिखाते हैं वो हैं राजेन्द्र अग्रवाल जी, जो सिटी पार्क होटल के मालिक हैं।

क्योंकि होटल में शादियां-फंक्शन होते रहते हैं, नाॅनवेज इस्तेमाल होता है, वह जिस तरह से सारे स्थान को एक दिन पहले धुलवाते हैं, पवित्र करते हैं, पूरी मेहनत से प्रसाद से लंगर तक की व्यवस्था में पूरी भावना के साथ लगते हैं, हम हमेशा उनको अपनी भावना से पेमेंट भी करते थे परन्तु पिछले वर्ष से उन्होंने और उनके बेटे ने निश्चय कर लिया कि वह इस काम के लिए एक पैसा भी स्वीकार नहीं करेंगे। हमने बहुत मिन्नत की, यह व्याव​हारिक नहीं है परन्तु लाख मिन्नत के बाद भी वह और उनका बेटा विजय शक्ति अग्रवाल नहीं माने। बात पैसों की नहीं, बात भावनाओं और संस्कारों की है जो उन्हें विरासत में मिले हैं आैर अपने बेटे को दे रहे हैं। असल में बात ज्यादा उनके बेटे की है जिसने यह कदम उठाया। मेरे बहुत कहने पर उन्होंने कहा-भाभीजी हम रोज देख रहे हैं आप इतना अच्छा काम कर रही हैं, हमें भी अापकी बाजू पकड़कर चलना है, हमें भी यज्ञ में आहुति डालने दो। सच में मेरी आंखें नम हो गईं क्योंकि हमेशा मेरे सामने यही आता है कि बुजुर्गों के काम के लिए लोगों के पास दिल नहीं है। अभी कुछ अच्छे लोग आगे अा रहे हैं जैसे राकेश बिन्दल जी, सिद्धार्थ सेवा संगठन, राजेन्द्र चड्डा जी, मनाेज सिंगल जी।

दूसरा उदाहरण मेरे सामने लालाजी, रोमेश जी के सहयोगी गवर्नर बलराम जी दास टण्डन जी हैं जिन्होंने पहले भी राशि भेजी, अभी फिर भेजी। बात फिर वही है राशि मायने नहीं रखती, मायने रखते हैं संस्कार और व्यवहार, जो इस समय इस काम की जरूरत को समझ रहे हैं और खास करके वो लोग जो खुद इस उम्र से गुजर रहे हैं। पिछले दिनों उनके बेटे संजय टण्डन जी से भी मुलाकात हुई। मैंने उन्हें भी उनके पिता की सोच का आभार जताया। काश! सारे गवर्नर उनके पदचिन्हों पर चलें क्योंकि बुजुर्गों को तन-मन-धन की पीड़ा होती है जिसे शायद बुजुर्ग ज्यादा समझते हैं परन्तु राजेन्द्र अग्रवाल जी के बेटे ने यह भी साबित कर दिया कि इसे अच्छे संस्कारों वाले बेटे भी समझते हैं या वो समझते हैं जिस तन लागे सो तन जाने परन्तु मैं तो सबको कहूंगी कि एक पल का भरोसा नहीं जितने अच्छे काम कर सकते हो करो। पल दा कि भरोसा यार पल आवे न आवे…।

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