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वंशवाद और लोकतंत्र

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लोकतंत्र में वंशवाद का तब तक कोई स्थान नहीं हो सकता जब तक कि इसे चलाने वाली आम जनता की निगाहों में उस वंश की साख किसी भी आशंका से परे न हो। दुनिया के जिन भी देशों में लोकतन्त्रीय व्यवस्था है वहां राजनी​ितक विरासत का सीधा संबंध उसके पुरखों के राष्ट्र के प्रति समर्पण या कुर्बानियों से रहा है। इस मामले में सबसे ताजा उदाहरण कनाडा के वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री त्रुदो का है जिनके पिता सत्तर के दशक में इस देश के प्रधानमन्त्री थे। यदि हम और गौर से देखें तो नवजात लोकतंत्राें से लेकर प्राचीन स्थापित लोकतंत्राें में भी वंशवादी राजनीति की जड़ें इन्हीं मूल कारकों से जुड़ी हुई हैं। अमरीका जैसी प्राचीन लोकतन्त्रीय व्यवस्था में यहां के कैनेडी परिवार की साख आज तक हर तरह के शक-ओ-शुबहा से परे रही है। दूसरी तरफ पाकिस्तान व बंगलादेश जैसे नवजात लोकतंत्राें में क्रमशः जुल्फिकार अली भुट्टो और शेख मुजीबुर्रहमान के परिवारों की साख भी बहुत ऊंचे स्तर पर रही है। यहां तक कि श्रीलंका में भी भंडारनायके परिवार का राजनीति में दबदबा रहा है।

जहां तक भारत का सवाल है, यह महानायकों का देश रहा है और इसकी जनता ने एेतिहासिक काल से स्वयं को इन्हीं महापुरुषों की छत्रछाया में सुरक्षित महसूस किया है मगर 1947 में भारत के स्वतन्त्र होने पर प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को बिना किसी जाति भेद या समप्रदाय भेद के एक वोट का महान अधिकार मिलने के बाद से परिस्थितियां बदलीं और लोगों के हाथ में अपनी सरकार खुद बनाने का अख्तियार आया जिसके चलते यह अवधारणा प्रबल हुई कि अब किसी राजा का मुकाबला कोई मजदूर भी चुनाव में खड़ा होकर कर सकता है। वास्तव में लोकतन्त्र भी यही है तभी तो 2014 के चुनावों में इसी देश के लोगों ने नरेन्द्र मोदी जैसे एक गरीब परिवार में जन्मे व्यक्ति को अपना प्रधानमन्त्री चुना मगर इसके साथ ही यह भी देखा जाना जरूरी है कि उनके चुने जाने से भारत के उस नेहरू-गांधी परिवार की साख कम नहीं हुई जिसका देश की स्वतन्त्रता से लेकर इसके पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान था। बेशक राहुल गांधी को इस परिवार का वारिस होने के नाते लोगों ने वरीयता नहीं दी लेकिन उसका कारण इस परिवार की साख नहीं बल्कि राहुल गांधी की व्यक्तिगत साख थी।

यह भारत की हकीकत है कि इस देश का बच्चा-बच्चा आज भी पं. नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी को राजनीति में ऊंचे स्थान पर रखकर देखता है। इसकी असली वजह यही है कि इस परिवार की इन पीढि़यों ने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में तनिक भर भी विचार नहीं किया आैर भारत को ऊंचाइयों पर पहुंचाने के लिए व्यक्तिगत हितों की कभी परवाह नहीं की मगर एेसा भी नहीं है कि भारत की जनता ने केवल परिवार को देखकर ही अपनी आंखें बन्द करके उसे समर्थन दिया हो। जब 1959 में पं. नेहरू ने अपनी सुपुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार को गिरवाया था तो समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने नेहरू जी के इस कदम की बहुत सख्त लहजे में आलोचना की थी और कहा था कि नेहरू ने यह क्या सितम कर डाला, लोकतन्त्र में वंशवाद का बीज बो डाला मगर इसके बाद इंदिरा जी राजन​ी​ति में हाशिए पर ही चली गईं। 1966 में जब वह लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बनीं तो कांग्रेस अध्यक्ष स्व. कामराज ने उनका चुनाव करते समय यही कहा था कि नेहरू की बेटी इस देश को आगे ले जाने में सफल रहेगी। उनके मुकाबले में तब स्व. मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल में नेता पद के प्रतिद्वंद्ववी थे मगर उनकी जबर्दस्त हार हुई थी।

सबसे हैरतंगेज यह था कि पूरे भारत ने इन्दिरा जी के प्रधानमन्त्री बनने पर खुशियां मनाई थीं। यह केवल नेहरू की बेटी होने का प्रतिफल था मगर इसके अगले साल ही 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस का एकछत्र राज्य समाप्त हो गया। लोकसभा में उसे बमुश्किल केवल 20 सीटों का बहुमत मिला और नौ राज्यों में इसकी सरकारें समाप्त हो गईं। भारत के लोगों ने वंशवाद के आधार पर इन्दिरा जी को स्वीकार तो कर लिया मगर उनके कार्यों से वह संतुष्ट नहीं हुई और उसने कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बजा दी। इसके बाद इंदिरा जी ने जो कुछ भी राजनीति में किया वह अपने बलबूते आैर दूरदर्शिता के आधार पर किया और 1970 से 1974 के दौरान भारत का स्वर्ण काल लिखकर अपना नाम नये दौर के महानायक के रूप में दर्ज करा दिया। उन्होंने बंगलादेश बनवाया, भारत को परमाणु शक्ति बनवाया, सिक्किम का भारत में विलय करके इसकी भौगोलिक सीमाओं को बढ़ाया, कश्मीर समस्या का हल शेख अब्दुल्ला से समझौता करके किया और दुनियाभर में भारत की साख एक तेजी से प्रगति करते शान्तिप्रिय देश के रूप में बनाई।

बेशक इमरजेंसी लगाकर उन्होंने लोकतंत्र को लहूलुहान भी किया मगर अपनी गलती को जल्दी सुधार लिया आैर पुनः लोकतन्त्र बहाल भी कर डाला। कहने का मतलब यह है कि लोकतन्त्र में वंशवाद तभी सफल और टिकाऊ हो सकता है जब उसके वारिसों में राजनीतिक योग्यता हो। दूसरा उदाहरण राजीव गांधी हैं जिन्हें इंदिरा जी का पुत्र होने की वजह से ही प्रधानमंत्री का पद मिला मगर वह पूरी तरह असफल रहे लेकिन इसके बावजूद पूरे भारत में आज भी कोई इंसान ढूंढे से नहीं मिलेगा जो यह विश्वास करता हो कि बोफोर्स तोप कांड में स्व. राजीव गांधी ने कोई भ्रष्टाचार किया हो। इसी तरह उनके अगले वारिसों के बारे में भी इस प्रकार की आशंका लाख विवाद होने के बावजूद कोई निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार नहीं करता है। यही वंशवाद की साख होती है लेकिन राहुल गांधी ने अमरीका में जाकर जिस प्रकार के भी बयान दिये हैं वे भारत की राजनीति के आज के दौर से आमना-सामना करते हैं और उनके इस बारे में अपने बेलौस विचार हैं। इस पर बिना शक राजनीति की जा सकती है मगर सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। लोकतन्त्र में किसी के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है। राहुल गांधी यदि कांग्रेस नेता होने के कारण वर्तमान सरकार के कार्यों में कमियां देखते हैं तो उसका जवाब उनकी वंशवादी राजनीति से नहीं दिया जा सकता। वह तभी तक नेता हैं जब तक जनता उन्हें इस औहदे पर देखना चाहती है। अतः सैद्धान्तिक तर्कों का जवाब व्यक्तिगत आलोचना किसी भी तौर पर नहीं हो सकती।

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