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आर्थिक सलाहकार परिषद और भारत

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प्रधानमंत्री ने अर्थशास्त्रियों की एक सलाहकार परिषद गठित करके परोक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था की गंभीरता का संज्ञान लिया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार को एेसे जरूरी कदम उठाने की जरूरत है जिससे देश का आर्थिक ढांचा मजबूत बना रहे। पिछले वर्ष अक्तूबर महीने में बड़े नोटों को बंद करने के फैसले के बाद से विकास वृद्धि दर में गिरावट दर्ज होने के प्रभाव से समूचा आर्थिक माहौल शिथिलता के शिकंजे में है और इसमें गति आने के संकेत भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से आर्थिक नीतियों में जो बदलाव देखा गया उसका असर घरेलू बाजार में सकारात्मक रूप से पड़ता तो पूंजीनिवेश में वृद्धि के साथ ही रोजगार में भी वृद्धि दिखाई पड़ती परन्तु एेसा हो नहीं सका। हालांकि सरकार की मूलभूत नीतियाें में पिछली मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों के मुकाबले कोई विशेष फर्क नहीं है। फर्क है तो केवल इतना कि मोदी सरकार ने क्रियान्वयन के स्तर पर डिलीवरी (लोगों के पास) प्रणाली में सुधार करने की कोशिश की।

इसके साथ ही जीएसटी के लागू होने के बाद से भारत भर में कर ढांचे में समूल संशोधन के प्रयास करते हुए इसने कारोबार को पूरी तरह पारदर्शी बनाने की कोशिश की मगर इसके क्रियान्वयन में जो दोष आया उससे पूरा व्यापार तंत्र थरथरा गया और छोटे व मध्यम दर्जे के व्यापार व उद्योग को इस नई प्रणाली में अपने लिए गलाघोंटू माहौल नजर आने लगा जबकि इसके विपरीत बड़े उद्योगों और व्यापारियों पर इसका असर विपरीत नहीं पड़ा। यह विरोधाभासी स्थिति है क्योंकि सरकार की कमान संभालने के बाद जब श्री नरेन्द्र मोदी से यह पूछा गया था कि उनकी सरकार की आर्थिक नीतियां समाजवादी होंगी या पूंजीवादी होंगी तो उन्हाेंने कहा था कि मैं किसी भी वाद में पड़े बिना वे नीतियां चलाऊंगा जो भारत के हित में होंगी। जिन आर्थिक नीतियों से भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ होगा वे ही नीतियां उनकी सरकार की होंगी। इसके साथ ही उनकी सरकार गरीबों की सरकार होगी क्योंकि एक सक्रिय सरकार की सबसे ज्यादा जरूरत गरीब आदमी को ही होती है। इसके विपरीत जब उन्होंने बड़े नोट बन्द करने का एेलान किया तो पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उनके इस कदम को ‘संगठित व कानूनी लूट-खसोट’ का नाम दिया जिसे भारत के आम लोगों ने एक सिरे से खारिज करते हुए अपने प्रधानमंत्री के कदम पर विश्वास जताया। इस विश्वास की वजह केवल इतनी थी कि लोगों को लगा था कि नोटबंदी के कदम से गरीब आदमी को अंततः लाभ पहुंचेगा और सरकार के पास उन लोगों का कालाधन आएगा जिन्होंने लोगों से बेइमानी करके अपनी तिजोरियां भरी हैं।

इसके साथ ही महंगाई की मार से आम जनता को निजात मिलेगी और उसका जीवन अपेक्षाकृत आसान बनेगा परन्तु एेसा कुछ न होने पर सबसे ज्यादा निराशा उन लोगों को हुई जिन्होंने सोचा था कि पुराने नोटों की जगह नए नोट आने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा, तभी यह चेतावनी भी दी गई थी कि बाजार से 80 प्रतिशत मुद्रा वापस लिए जाने के फैसले से औद्योगिक मंदी का अस्थाई दौर आ सकता है जिसके लिए सरकार को आपातकालीन योजना तैयार रखनी चाहिए मगर ऐसा कुछ न होने पर आर्थिक माहौल बिगड़ता चला गया। इसके बाद जीएसटी के लागू होने पर रोकड़ा की कमी से त्रस्त छोटे उद्यमियों व व्यापारियों के सामने नया संकट आकर खड़ा हो गया। यह संकट व्यावहारिकता पर टिका हुआ है मगर देश में यह संदेश जा रहा है कि वर्तमान केन्द्र सरकार की नीतियां बड़े उद्योगों के पक्ष में ज्यादा हैं जबकि छोटे उद्योगों के लिए यह पुनः इंस्पैक्टर राज ला रही है। प्रायः एेसा होता है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में सरकार के हाथ में ज्यादा कुछ नहीं होता बल्कि उसका ध्येय उत्पादन व व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाने वाली नीतियों पर केन्द्रित रहता है जिससे उसी के अनुपात में रोजगार में वृद्धि होती रहे और लोगों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार होता रहे मगर यह समीकरण गड़बड़ा गया है और सरकार द्वारा स्वरोजगार की जितनी भी स्कीमें हैं वे बाजार की गतिविधियों के मुताबिक लाचार नजर आ रही हैं। वैसे यह देखना भी जरूरी होगा कि मुद्रा योजना के तहत जिन लोगों को छोटे ऋण बांटे गए हैं वे कौन हैं और उन्हाेंने कौन सा नया रोजगार पैदा किया है। ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री द्वारा पांच अर्थशास्त्रियों की सलाहकार परिषद गठित करने का फैसला स्वागत योग्य है।

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