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राज्यों के चुनाव और संसद

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गुजरात विधानसभा चुनाव और संसद के पारंपरिक सत्र कार्यक्रम का आपस में क्या लेना-देना है। यह सवाल विपक्षी दल विशेषकर कांग्रेस पार्टी उठा रही है और कह रही है कि एक राज्य के चुनावों की वजह से संसद के शीतकालीन सत्र को आगे टाला जाना पूरी तरह गलत और लोकतन्त्र विरोधी है। शीतकालीन सत्र प्राय: नवम्बर महीने के मध्य से शुरू हो जाता है। इस मुद्दे पर सत्तापक्ष की पार्टी भाजपा की तरफ से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई है मगर यह सरकार का विशेषाधिकार भी है कि वह संसद के सत्र को आगे-पीछे कर सकती है। इसके उलट भारत में ऐसा कई बार हुआ है जब जनापेक्षाओं पर खुद को खरा दिखाने के लिए स्वयं सरकार ने ही संसद का विशेष सत्र बुलाया। फिर भी संकटकालीन या आपातकालीन परिस्थितियों में संसद के सत्र को टाला जा सकता है और परिस्थितियों के सामान्य होने पर इसे शुरू किया जा सकता है हालांकि भारत में ऐसी परिस्थितियां कभी नहीं आईं अथवा तत्कालीन सरकारों ने विपरीत समय में भी संसद के सामान्य कार्यक्रम में हेरफेर करने की जरूरत नहीं समझी।

1971 के बंगलादेश युद्ध के समय भी संसद का शीतकालीन सत्र चालू था और बंगलादेश उदय की घोषणा भी संसद के चालू सत्र में ही की गई थी। यह संयोग भी हो सकता है मगर इतना तय है कि इससे भारत की राजनीतिक व्यवस्था की संसदीय लोकतन्त्र के लिए अटूट प्रतिबद्धता का पता चलता है। लोकतन्त्र जो आम जनता की एक वोट की ताकत से निर्देशित होता है, कभी भी इस वोट का अधिकार रखने वाले मतदाता के अदम्य साहस को क्षीण नहीं कर सकता है। वास्तव में मतदाता के इस साहस का नाम ही लोकतन्त्र है जो हर चुनाव में राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की हिम्मत रखता है। अत: पूरे माजरे को इस नजर से देखा जाना चाहिए और फिर वस्तुगत तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना चाहिए। गुजरात भारत के अन्य राज्यों की तरह ही एक राज्य है और इसमें विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के बाद नये चुनाव कराये जाना भी एक सामान्य प्रक्रिया है। इस प्रकिया का मुख्य हिस्सा मतदान और फिर उसके बाद चुनाव परिणाम होगा जिससे इस राज्य के लोगों का जनादेश प्रकट होगा। इस जनादेश को अपने पक्ष में पाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में जमीन-आसमान एक कर देंगे मगर वही दल सत्ता का हकदार बनेगा जिसे लोगों का समर्थन प्राप्त होगा। इस पूरी प्रक्रिया का संसद के अधिवेशन से क्या वास्ता हो सकता है।

संसद का कार्य राज्यों की अन्दरूनी राजनीति पर बहस करने का नहीं है। इस कार्य के लिए विधानसभाएं बनाई गई हैं। अक्सर संसद में किसी विशेष राज्य का मुद्दा उठाये जाने पर तीखा विवाद हो जाता है और किसी भी मामले को संसद में तभी उठाया जाता है जबकि वहां घटी किसी घटना का सम्बन्ध आम जनजीवन के सर्वमान्य पक्ष से हो और वह विषय संविधानत: केन्द्र सरकार के दायरे में आता हो। मसलन किसी राज्य के मन्त्री पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को उस मन्त्री के सन्दर्भ में नहीं उठाया जा सकता मगर भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाया जा सकता है और बहस में उस राज्य की घटनाओं को भी लपेटा जा सकता है। अत: यह नहीं माना जा सकता कि हमारे संविधान निर्माताओं ने आने वाले कल की दस्तक न सुनी हो और उन्होंने लोकतन्त्र को सर्वथा अक्षुण्ण रखने के पुख्ता इन्तजाम न बांधे हों। यह स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच इस देश की नई पीढ़ी को नहीं होना चाहिए कि हमारे देश के स्वतन्त्र कराने वाले पुरोधाओं को इस देश के अनपढ़ व मुफलिस समझे जाने वाले मतदाताओं की अक्ल पर पूरा भरोसा था इसीलिए उन्होंने हमें त्रिस्तरीय (संसद, विधानसभा, नगर पालिका) प्रशासनिक प्रणाली दी।

हमें इस व्यवस्था का आदर करना चाहिए और चुनावी हार-जीत को निजी प्रतिष्ठा के स्थान पर नीतिगत हार-जीत की तराजू में ही रखकर तोलना चाहिए। लोकतन्त्र में जनता का विश्वास जीतना सबसे प्रमुख कार्य होता है और यह तभी जीता जाता है जब जन अवधारणा किसी राजनीतिक दल के पक्ष में हो। निश्चित रूप से इसमें व्यक्तियों की भी भूमिका होती है मगर वह नीतिगत जन अवधारणा से ऊपर नहीं हो पाती है इसीलिए यह मान्यता निरर्थक नहीं है कि चुनाव वही पार्टी या नेता जीतता है जो जनता के सामने एजेंडा तय कर देता है। गुजरात में जिस तरह के चुनावी युद्ध की शतरंज की बाजी बिछाई जा चुकी है उसमें ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं है क्योंकि गुजराती मतदाता बहुत ही शान्त स्वभाव के साथ राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करने में सिद्धहस्त माने जाते हैं।

यह समझा जाना चाहिए कि ये एक राज्य के चुनाव हैं और इनका परिणाम भी वहां की स्थानीय राजनीति के कारणों से ही प्रभावित होगा, ठीक उसी प्रकार जिस तरह इस वर्ष के शुरू में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा जीती और पंजाब में कांग्रेस ने सबको चित्त कर दिया जबकि अन्य तीन राज्यों में से एक में भाजपा व दो में कांग्रेस ने बाजी मारी जबकि हकीकत यह है कि इन सभी राज्यों में इन दोनों पार्टियों की तरफ से मुख्य चुनाव प्रचारक हस्तियां एक ही थीं अत: राज्यों के चुनाव व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के दायरे में कैसे रख कर देखे जा सकते हैं।असली देखने वाली बात यह होगी कि इन चुनावों में मतदाता किस पार्टी के तय एजेंडे को अपने हित में मानते हैं मगर मतदाताओं को जो राजनीतिक दल मूर्ख मानने की गलती कर बैठता है उससे बड़ा मूर्ख कोई दूसरा नहीं होता। इस मुल्क का इतिहास यह रहा है कि जहां नेता पथभ्रष्ट हो जाते हैं वहां जनता खुद अपने हाथ में कमान संभाल कर नेतृत्व पैदा कर देती है। 1971 से लेकर अब तक हुए सभी चुनावों में आम जनता ने यही सिद्ध करके दिखाया है और लगभग प्रत्येक राज्य में भी ऐसा ही हुआ है। अत: चुनावों को अस्तित्व या प्रतिष्ठा के लिए चुनौती मानने का कोई कारण नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र में कोई भी जनता से ऊपर नहीं है। उसका हर फैसला शिरोधार्य करने के लिए ही होता है।

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