आज कोई शक की बात नहीं कि महिलाओं का जमाना है। महिलाएं हर क्षेत्र में आगे हैं। मोदी हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने महिलाओं के बारे में नारा दिया-‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ या यूं कह लो एक नई सोच शुरू की, कभी उनके शौचालय की दिक्कत के बारे, कहीं पढ़ने के बारे, कहीं भ्रूण हत्या से बचाने के बारे में सोचा परन्तु फिर भी रोज हम रेप, तलाक केस के बारे में भी सुनते हैं जिसके लिए लोगों की मानसिकता को बदलना जरूरी है जो कहीं न कहीं ज्यादा खुलापन या नेट और फोन पर हर चीज मिलने पर पहले से अधिक खराब हो रही है। मैंने स्वयं करनाल में अपने पति सांसद श्री अश्विनी कुमार के राजनीति की जमीन पर उतरने से पहले जब चुनाव प्रचार चल रहा था तो सोच लिया था कि बहनों की खुले में शौच की समस्याओं को दूर करने का प्रयत्न करूंगी। यह एक बहुत बड़ी समस्या थी जिसका आज राष्ट्रीय स्तर पर निदान ढूंढा जा रहा है। मैं मानती हूं कि महिलाएं पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं परन्तु ईश्वर की तरफ से शारीरिक रूप से उसकी ऐसी रचना की गई है कि वो गर्भावस्था में या रजस्वला अवस्था में कमजोर पड़ती हैं।
अब तो बहुत व्यवस्था हो गई है। पहले तो माताएं अपनी लड़कियों के लिए खुद घर में रूई और कपड़े से पैड बनाती थीं। इसमें कोई शक नहीं कि कुदरत या भगवान की बात करें तो शारीरिक संरचना को लेकर महिलाओं को लेकर पुरुषों के बराबर थोड़ा फर्क किया गया है। महिलाओं की दिक्कतें थोड़ी ज्यादा हैं। शरीर की अपनी-अपनी नियित और अपनी प्रकृति है जिसे लेकर महिलाओं को कुछ खास मौकों पर बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। लेकिन पिछले दिनों लड़कियों की एक और बड़ी समस्या उसके रजस्वला (पीरियड्स) होने को लेकर फिल्म पैडमेन की चर्चा करना चाहूंगी जिसमें इस समस्या को एक नाट्य तरीके से उठाया गया है। सवाल सैनिटरी पैड्स के महंगे या सस्ते होने का नहीं है बल्कि जरूरत का है, जिसे फिल्म में उठाया गया है। नारी से जुड़े अनेक विषयों पर फिल्में बालीवुड में बनती रही हैं। कुछ साल पहले मैंने अपने घर काम करने वाली को इससे जूझते देखा तो मैंने उसे सेनिटरी नेपकिन दिए और कहा कि आगे से तुम इसे खरीद लेना तो उसका जवाब था-मैडम यह तो फैंकना ही होता है। मैं इसमें पैसे क्यों बर्बाद करूं, यह महंगे हैं। तब मैंने जाना कि इनको न तो हाइजीनिक की समझ है आैर न ही यह अफोर्ड कर सकती हैं। यदि आप गांवों या कलस्टर या अन्य मलिन बस्तियों में लड़कियों काे इस समस्या के प्रति जागरूक बनाना चाहते हैं तो अनेक एनजीओ इस काम में लगाये जा सकते हैं।
राज्य सरकारों से जुड़ कर इस अभियान को सफल बनाने के लिए पैड्स की फ्री डिलीवरी की व्यवस्था की जा सकती है। या सस्ते दामों में नेपकिन बनाकर दोनों तरफ महिलाओं को ज्यादा फायदा दिया जा सकता है-रोजगार भी मिलेगा आैर दाम भी कम। जैसे मेरे पास ‘लाइटिंग लाइव्स’ वाली महिलाएं आईं जो पिछले 2 साल से फ्री नेपकिन बांट रही हैं। जहां तक रही बड़े वर्ग की बात तो वहां उन्हें और उनकी लड़कियों को इस समस्या से निपटने की समस्या नहीं रहती, क्योंकि पब्लिक स्कूलों में उन्हें सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर तरीके से अलर्ट कर दिया जाता है। हमारा यह मानना है कि अभी भी नारी सशक्तिकरण से जुड़े और स्वास्थ्य संगठन आपस में तालमेल करते हुए आगे बढ़ें तथा रजस्वला जैसी गंभीर समस्या आैर पैड्स के मामले में सम्बद्ध लोगों को जागरूक बनाने के लिए अनेक एनजीओ की मदद से, जिसमें केवल लड़कियां ही हों, एक बड़ा अभियान छेड़ा जाना चाहिए पर हमारा यह मानना है कि लड़कियों की प्राइवेट लाइफ और प्राइवेसी का सम्मान जरूर किया जाना चाहिए। हर बात मर्यादा में हो तो अच्छा है।
चाहे हम जितने भी एडवांस, एजुकेटिड हो जाएं, कई बातें मर्यादा में ही अच्छी लगती हैं। मेरा यह मानना है कि पीरियड्स आने के दौरान इस गंभीर समस्या के लिए यद्यपि माता-पिता अपने बच्चों को, विशेष रूप से मां या दादी या नानी ने, तैयार किया हुआ होता है परन्तु िफर भी जिस तरह से अब कम्पयूटर के जमाने में खुलापन आ रहा है तो लोग, विशेष रूप से बच्चे, इस बारे में बहुत कुछ सीख लेते हैं। विज्ञान के विषय में इस समस्या का निदान ऐसे तरीके से किया जाना चाहिए कि हर बच्ची को उसके पीरियड्स आने के निश्चित समय से पहले कोई न कोई जानकारी दी जानी चाहिए क्योंकि कई स्त्री विशेषज्ञों का मानना है कि घबराहट, तनाव या फिर उत्सुकता से यह समस्या पहले भी उत्पन्न हो सकती है लिहाजा पैड्स की व्यवस्था की जानी चाहिए, यद्यपि फिल्म पैडमेन में सैनेटरी पैड्स को लेकर सस्ते और महंगे का जिक्र किया गया है, जिसे लेकर ब्रांडेड कम्पनियों पर अप्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष िकए गए हैं, परन्तु हमारा यह मानना है कि मनोरंजन के लिए इतने गंभीर विषय को सार्वजनिक करके या किसी फिल्म का निर्माण करके नारी के नारीत्व की कद्र जरूर की जानी चाहिए। यह एक गोपनीय और निजी मामला है, इसका नाट्य रूपांतरण और वह भी फिल्मों के माध्यम से, कम से कम अनेक वर्ग स्वीकार नहीं कर सकते हैं। आज के समय में एक फिल्म महज मनोरंजन के लिए देखी जाती है जिसमें नारी का सम्मान अवश्य सुरक्षित रहना चाहिए। हम किसी पाषाण युग में नहीं बल्कि आधुनिक युग में जी रहे हैं। जरूरत से ज्यादा ज्ञान और कम्प्यूटर या फिल्म से उसका जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन भी ठीक नहीं। मैं तो यह कहना चाहूंगी कि स्त्रियों के लिए गांवों में, झुग्गी-झोंपड़ी में सस्ते, रीजनेबल सेनिटरी नेपकिन बिकने चाहिएं आैर बुजुर्गों के लिए, जिनका इस उम्र में कमजोरी के कारण यूरिन पास हो जाता है, उनके लिए भी साथ इंतजाम होना चाहिए।