प्रायः देखा गया है कि सड़क दुर्घटना में घायल पड़े लोगों की उधर से गुजरने वाले लोग मदद करने से हिचकते हैं। लोग घायल अवस्था में गुहार लगाते रहते हैं, कोई उन्हें अस्पताल नहीं पहुंचाता। लोगों को इस बात का डर होता है कि उन्हें नाहक अस्पताल और पुलिस के तरह-तरह के सवालों का जवाब देना पड़ेगा। कोर्ट-कचहरी में भी उनकी गवाही होगी। दिन तो बर्बाद होगा ही और अगर कोर्ट केस हुआ तो उनका बहुत समय बर्बाद होगा।
पुलिस वालों के तो सवाल ही ऐसे होते हैं जो मदद करने वाले लोगों को ही परेशान कर देने वाले होते हैं। यह भी एक कारण है कि अक्सर लोग घायलों को उनके रहमोकरम पर छोड़ देते हैं। सभ्य समाज पर संवेदनहीन होने का कलंक भी लगता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद परिवहन मंत्रालय और स्वास्थ्य विभाग बार-बार यह कहता है कि सड़क हादसों में घायल किसी व्यक्ति को प्राथमिक उपचार के लिए सरकारी या गैर-सरकारी अस्पतालों में भर्ती कराने वालों से न तो चिकित्सक अाैर न ही पुलिस वाले कोई पूछताछ करेंगे।
नाम और पता बताने के लिए भी उन्हें विवश नहीं किया जाएगा। घायल की मदद करने वालों से डाक्टर और पुलिस कोई ब्यौरा नहीं मांगेगी। न ही उपचार से पहले उसका कोई बयान दर्ज किया जाएगा लेकिन लोगों को न तो पुलिस पर और न ही अस्पतालों पर कोई विश्वास है। आज हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां हर इन्सान फेसबुक और अन्य सोशल साइटों पर अपने दोस्तों की सूची को लम्बा करने में व्यस्त है। घंटों-घंटों का समय फेसबुक और व्हाट्सअप पर दूरदराज बैठे अंजान मित्रों से बातचीत में बिताया जाता है।
युवक-युवतियां सड़कों पर चलते समय, कार चलाते समय भी मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं लेकिन उनके पास नजदीकी लोगों से बात करने की फुर्सत ही नहीं है इसलिए संवेदनहीन समाज के तथाकथित सभ्य लोग किसी दुर्घटना में घायल इन्सान को मदद देने की बजाय पर्सनल फोन से वीडियो बनाना जरूरी समझते हैं। हम भले ही तकनीकी तौर पर उन्नति करके विकास कर रहे हैं लेकिन अपने मूल्यों, दायित्वों और संस्कारों को भुलाकर अवनति को गले लगा रहे हैं।
एक पिता अपने मासूम बच्चे को पीट-पीटकर मार डालता है, एक मां अपने नवजात शिशु के जोर-जोर से रोने पर उसे पटक-पटक कर मार डालती है। समाज में बहुत सी ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जिन्हें देखकर तो ऐसे लगता है कि समाज बड़े गहरे संकट में फंस चुका है। प्रेम और भाईचारा दम तोड़ रहा है। समाज में ऐसी घटनाएं भी सामने आती हैं कि लोग मदद कर दूसरों को जीवनदान देते हैं। हालांकि ऐसी घटनाएं बहुत कम ही दिखाई पड़ती हैं। नोएडा के निठारी के सामने एलिवेटेड रोड पर दो कारों में टक्कर हो गई थी जिस कारण दो महिलाओं सहित 4 लोग घायल हो गए थे लेकिन राहगीरों ने घटना के 10 मिनट के अन्दर ही घायलों को अस्पताल पहुंचाकर मानवता की मिसाल पेश की।
सड़क दुर्घटना के बाद किसी भी घायल के लिए शुरू के 20 मिनट जीवन के लिए बहुत जरूरी होते हैं। यदि इस अवधि में घायल को अस्पताल पहुंचा दिया जाए और उसका इलाज शुरू कर दिया जाए तो उसकी जान बच सकती है। घायलों की जान बचाने वाले कौन थे, कहां के थे, किसी को भी मालूम नहीं। यह अजनबी राहगीर कसी देवदूत की तरह आए और अपने वाहन सड़क के किनारे खड़े कर घायलों को क्षतिग्रस्त गाड़ियों से बाहर निकाला और उन्हें अस्पताल पहुंचाया। कुछ दिन पहले भी एक सड़क दुर्घटना में घायल छात्र काे एक लड़की ने अपना दुपट्टा बांधकर उसका बहता खून रोकने की कोशिश की।
वह तब तक घायल छात्र के साथ रही जब तक उसके दोस्त ऑटो लेकर नहीं पहुंचे। ऐसे राहगीरों का अनुकरण जरूरी है। समाज के संवेदनहीन होने के पीछे हमारा संस्कारों से पलायन और नैतिक मूल्यों के प्रति उदासीनता ही दोषी है। हम आधुनिकता के चक्रव्यूह में फंसकर अपने रिश्तों, मर्यादाओं आैर दायित्वों को भूल रहे हैं। समाज में निर्दयता आैर हैवानियत बढ़ रही है। ऐसे में समाज को संवेदनशील बनाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिएं। ऐसा कैसे किया जाए, इस सम्बन्ध में समाज शास्त्रियो को सोचना होगा।