लोग आखिर किसकी चौखट पर जाकर गुहार लगाएं, किसके सामने अपनी दास्तान सुनाएं। उनकी अन्तिम आस सरकारें ही होती हैं। इन्सान कितना अमानवीय हो चुका है इसका अनुमान फोर्टिस और मैक्स अस्पताल से लगाया जा सकता है। महंगे और पांच सितारा नुमा अस्पताल ‘कत्लगाह’ बन गए हैं। आम आदमी कर भी क्या सकता है, उसके पास कोई सुदर्शन चक्र नहीं। गोवर्धन जैसा बोझ वह उठा नहीं सकता। न मुजरिम पकड़ सकता है और न किसी का गुनाह ही साबित कर सकता है। यह काम प्रशासन और सरकारों का है।
मैक्स अस्पताल मामले में दूसरे बच्चे की भी मौत हो गई है। एक बच्चे की मौत तो 30 नवम्बर को ही हो गई थी जबकि सांस ले रहे बच्चे को डाक्टरों ने मृत करार देकर पोलिथीन में लपेटकर माता-पिता को दे दिया था। राजधानी के शालीमार बाग के मैक्स अस्पताल के डाक्टरों की योग्यता, संवेदनशीलता और मानवीयता पर प्रहार करता यह हिला देने वाला वाकया है। डाक्टरों को लोग भगवान का रूप मानते हैं लेकिन भगवान के इन फरिश्तों ने बिना जरूरी परीक्षण किए जीवित बच्चे को मृत कैसे घोषित कर दिया। शुरूआती जांच में तो डाक्टरों की घोर लापरवाही की ही पुष्टि हुई। दो डाक्टरों को निलम्बित भी कर दिया गया है। अब दिल्ली सरकार पर निर्भर है कि वह क्या कार्रवाई करती है। कहा तो यही जा रहा है कि अस्पताल का लाइसेंस निरस्त किया जाएगा।
दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन भी अंतिम रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं। दूसरा मामला गुडग़ांव के फोर्टिस अस्पताल का है जिसने बेबी आद्या के उपचार में करीब 3 हजार जोड़े दस्ताने, प्रतिदिन 40 इंजैक्शन के बिल और 10 दिन वेंटीलेटर पर रखने के खर्च समेत 16 लाख का बिल उसके माता-पिता को थमाया। इसके बावजूद बच्ची को बचाया नहीं जा सका। जब मामला सामने आया तो सरकार ने रिपोर्ट मांगी। अब जांच रिपोर्ट से पता चलता है कि लड़की को जो उपचार मुहैया कराया गया था, उस पर भारी-भरकम फायदा कमाया गया। यह फायदा 108 फीसदी से लेकर 1,737 फीसदी तक था। प्लेटलेट्स चढ़ाने में भी ज्यादा पैसा वसूलने की बात आई। हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा-‘यह मौत नहीं बल्कि हत्या थी।Ó कई अनियमितताएं सामने आई हैं, कई तरह की अनैतिक चीजें हुई हैं। चिकित्सीय कत्र्तव्यों का पालन नहीं किया गया। मंत्री महोदय ने कहा है कि अस्पताल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई जाएगी। फोर्टिस की जमीन की लीज भी रद्द हो सकती है, ब्लड बैंक का लाइसेंस भी निरस्त किया जा सकता है। और तो और अपनी जुबां बन्द रखने के लिए अस्पताल ने बच्ची के अभिभावकों को 25 लाख की रिश्वत देने का प्रयास किया। शहरों में सरकारी जमीनों पर बने बड़े नामी अस्पताल अपनी पहुंच के दम पर सिस्टम को अपनी अंगुलियों पर नचाते रहे हैं। वास्तव में इन बड़े अस्पतालों के खिलाफ कई बार चिकित्सीय लापरवाही के मामलों में कभी कोई कार्रवाई हुई ही नहीं।
सिस्टम और पुलिस तंत्र इन अस्पतालों का सुरक्षा कवच बनते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन अस्पतालों के हर कार्यक्रम में राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक भाग लेते रहे हैं, जिन अस्पतालों में मरीज से व्यवहार उसकी हैसियत पर निर्भर करता है। दरअसल जिन भौतिकताओं को निजी-सामाजिक व्यवहारों में प्राथमिकता दी गई, उसमें सेहत के सम्मान का सबक गायब कर दिया गया है। इससे ही सेवा व्यापार बन गई है। गुडग़ांव में फोर्टिस को कुछ निश्चित शर्तों पर सरकार ने जमीन दी थी। इसमें 20 फीसदी मुफ्त ओपीडी की शर्त, 10 फीसदी मुफ्त बैड और ऐसे 20 फीसदी मरीजों को भर्ती किया जाता है जिन्हें 70 फीसदी छूट के साथ इलाज देने की शर्त शामिल थी लेकिन प्रथम दृष्टया इन सभी चीजों का उल्लंघन किया गया। जिन अस्पतालों का उद्देश्य ही लोगों को लूटना है, ऐसे अस्पतालों को चलाने का क्या लाभ? इनकी भूमि लीज तो तुरन्त निरस्त कर देनी चाहिए।
मैडिकल क्षेत्र में लूट का बाजार गर्म है। डाक्टर जरूरत न होते हुए भी महंगे टैस्ट लिखकर देते हैं। मरीजों को बेवजह परेशान किया जाता है। उन्हें जानलेवा बीमारियों का भय दिखाकर टैस्ट कराने को कहा जाता है। उसमें से हर डाक्टर को बंधी-बंधाई मोटी कमीशन मिलती है। किडनी रैकेट को रोकने के लिए कितने ही प्रयास क्यों न किए गए हों, किडनी रैकेट बदस्तूर जारी है। इस रैकेट को संचालित करने वाला माफिया इतना ताकतवर है कि वह देश के किसी भी क्षेत्र से चला लिया जाता है। सभी डाक्टर जब अपने चिकित्सीय जीवन की शुरूआत करते हैं तो उनके मन में नैतिकता और जरूरतमंदों की मदद का जज्बा होता है जिसकी वे कसम भी खाते हैं। इसके बाद कुछ लोग इस विचार से पथभ्रमित होकर अनैतिकता की राह पर चल पड़ते हैं।
वर्तमान में डाक्टर पुराने सम्मान को प्राप्त करने के लिए कोई संघर्ष नहीं कर रहा, उन्हें तो सिर्फ पैसा चाहिए। पुराने समय में डाक्टर सम्मान प्राप्त करने के लिए काम करते थे लेकिन ऐसे डाक्टर अब काफी कम रह गए हैं जो सेवाभाव को जीवित रख रहे हैं। देश में डाक्टरों और मरीजों का अनुपात बिगड़ा हुआ है। 1.3 अरब लोगों का इलाज करने के लिए लगभग 10 लाख एलोपैथिक डाक्टर हैं। इनमें से केवल 1.1 लाख डाक्टर सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करते हैं इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए थोड़े से डाक्टरों पर निर्भर है। ग्रामीण इलाकों में तो प्रति 5 डाक्टरों में केवल एक डाक्टर ही ठीक से प्रशिक्षित और मान्यता प्राप्त है। ऐसे में देश अस्वस्थ नहीं होगा तो क्या होगा? केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर मैडिकल क्षेत्र में काम करना होगा। दिल्ली और हरियाणा सरकार को दोषी पाए गए अस्पतालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि यह औरों के लिए नजीर बन जाए।