आजाद भारत में स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका की निर्भीक भूमिका हमारे संविधान निर्माताओं ने इतने एेहतियात के साथ तय की थी कि संसद से लेकर सड़क तक के हर आदमी को यह पक्का यकीन रहे कि कानून का राज किसी के साथ भी उसकी हैसियत देखकर बर्ताव नहीं करेगा और हर सूरत में संविधान की रूह से मुल्क का निजाम चलाया जायेगा। पूरी न्याय व्यवस्था की देखरेख के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना करके हमारे पुरखों ने सुनिश्चित किया कि इसके दायरे में मुल्क का निजाम चलाने वाली वे संस्थाएं भी रहेंगी जिन पर संविधान के अनुसार काम करने का दायित्व होगा और इसी नजरिये से इस न्यायालय को वे अधिकार भी मिले जिनके तहत संसद द्वारा बनाये गये किसी भी कानून की संविधान की कसौटी पर जांच-परख कर सके। इसके लिए देश की इस सबसे बड़ी अदालत में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जो प्रणाली बनाई गई वह राजनीतिक दलीय व्यवस्था से बनने वाली सरकारों के हस्तक्षेप से परे रखकर बनाई गई और यह तय किया गया कि कोई भी राजनैतिक दल इस सबसे बड़ी अदालत की हदों से दूर रहकर ही अपने हर काम की केवल संविधान पर ही तसदीक करे मगर इस बेहतरीन तन्त्र को चलाने वाले सर्वोच्च न्यायालय के खुद के भीतर भी एेसी प्रणाली का होना लाजिमी था जिससे इसमें नियुक्त होने वाले सभी न्यायाधीश किसी भी प्रकार के संकोच या लालच अथवा भय के अपना कार्य पूरी निष्पक्षता के साथ कर सकें। इसकी देखरेख की जिम्मेदारी जाहिर तौर पर मुख्य न्यायाधीश की ही होती है।
सबसे पहले यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि मुख्य न्यायाधीश ही भारत के राष्ट्रपति को उनके पद की शपथ दिलाते हैं, जोकि संविधान के संरक्षक होते हैं। अतः मुख्य न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर अगर उनके ही संस्थान के कुछ दूसरे न्यायाधीश सवाल उठाते हैं तो यह सवाल भारत के लोकतन्त्र से जुड़े हर उस आदमी के लिए चिन्ता का विषय है जो इसमें भागीदार है। इसमें राजनीतिक दलों से लेकर संसद, कार्यपालिका और साधारण आदमी सभी आते हैं। सवाल किसी की व्यक्तिगत आलोचना का नहीं है बल्कि असली सवाल न्यायपालिका को किसी भी सन्देह से ऊपर रखने का है। अतः चार न्यायमूर्तियों सर्वश्री चमलेश्वर, रंजन गोगोई, एमबी लोकुर व कुरियन जोसेफ ने जनता की अदालत में आकर अपनी जो आशंकाएं प्रकट की हैं वे भारत के महान लोकतन्त्र के उस संविधान की मर्यादाओं को मजबूती प्रदान करती हैं जिसे ‘हम भारत के लोगों’ ने 26 जनवरी 1950 को लागू किया था। अतः जो कानूनी विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की अन्तःसंरचना या कार्यतन्त्र नियमावली का मामला सार्वजनिक नहीं होना चाहिए था वे यह भूल रहे हैं कि देश की जनता को न्याय देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के भीतर एेसी व्यवस्था किसी तौर पर नहीं हो सकती जिसमंे उसके भीतर ही न्याय देने वाले न्यायाधीशों को लगने लगे कि न्याय की अवहेलना हो रही है। जब कुछ महीने पहले ही इन न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर अपनी आशंकाएं प्रकट कर दी थीं तो उनका निवारण उसी स्तर पर होना चाहिए था परन्तु एेसा नहीं हुआ।
ये न्यायाधीश कह रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों से न्यायालय के कार्य निस्तारण में सुनिश्चित नियमों की अवहेलना करके विभिन्न मुकदमों को निपटाने के लिए खास पीठों का चयन किया जा रहा है। स्वतन्त्र भारत में पहला एेसा अवसर है कि जब इस सबसे बड़ी अदालत के अंदरूनी कामकाज को लेकर इस प्रकार की शिकायतें आयी हैं। यह मामला एेसा नहीं है कि इसे हम छोटा-मोटा समझ कर दरकिनार कर दें बल्कि हमारे लोकतन्त्र की बुनियाद का है। यह बुनियाद यही है कि न्यायपालिका के सर्वोच्च मन्दिर का प्रबन्धन पूरी पवित्रता के साथ किया जायेगा। यह स्वयं विस्मयकारी है कि मुख्य न्यायाधीश की कार्यप्रणाली से कुछ वरिष्ठ न्यायमूर्तियों को लग रहा है कि वह मुकदमों के निपटारे खासकर एेसे मामलों में भेदभाव कर रहे हैं जिनका परिणाम दूरगामी हो सकता है। यह भी अपने-आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि न्यायमूर्ति रंजन गोगोई स्वयं आज प्रेस कान्फ्रेंस में विशेष सीबीआई अदालत के जज बीएच लोहा की रहस्यमय परिस्थितियों मंे हुई मृत्यु का मामला उठाते हैं जो सोहराबुद्दीन मुठभेड़ कांड के मुकदमें की सुनवाई कर रहे थे। यह मामला आज ही न्यायालय की एक पीठ को सौंपा गया है।
श्री रंजन गोगोई अक्तूबर महीने में सबसे वरिष्ठ होने पर मुख्य न्यायाधीश का पद संभालेंगे। अतः सरकार का इकबाल बुलन्द रखने के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका के भीतर से किसी प्रकार का एेसा संकेत न आये कि लोकतन्त्र का सन्तुलन गड़बड़ा रहा है। बिना शक चार न्यायमूर्तियों ने पहली बार प्रेस कान्फ्रेंस करके अपने मतभेद प्रकट किये हैं मगर हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1974 में चार न्यायाधीशों ने केवल इस मुद्दे पर अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था कि उनकी वरिष्ठता को लांघकर तत्कालीन इन्दिरा गांधी सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के औहदे पर श्री अजित नाथ राय को बिठा दिया था। उसका असर आम जनता पर बहुत विपरीत हुआ था और इन्दिरा जी की लोकप्रियता इस हद तक प्रभावित हुई थी कि उनकी पार्टी राज्यों के विधानसभा चुनाव हारने लगी थी। उन्होंने इतना भर ही कह दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय को फैसला सुनाते हुए सरकार की नीतियों को ध्यान में रखना चाहिए। उनके इस बयान को जनसंघ समेत सभी विरोधी दलों ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता पर हमला कहा था और स्व. जय प्रकाश नारायण ने तो अपने आन्दोलन में इसे हथियार बना डाला था। अतः हमंे उस लोकतन्त्र को पूरी तरह सुरक्षित रखना है जिसमें एक चाय बेचने वाला भी प्रधानमन्त्री बन सकता है और पूरी दुनिया को बता सकता है कि भारत 21वीं सदी का सबसे बड़ा लोकतन्त्र केवल किताबों में ही नहीं बल्कि जमीन पर भी है।