सर्वोच्च न्यायालय ने भूतपूर्व मुख्यमन्त्रियों को सरकारी आवास की सुविधाएं देने पर रोक लगाने का आदेश देकर साफ कर दिया है कि जनतन्त्र में समय-समय पर दिये गए जनमत को वे स्थाई सुविधाएं प्राप्त करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है जिनका खर्चा सरकार उठाती है। जाहिर है कि यह धन जनता से वसूले गए राजस्व से ही प्राप्त होता है। संसदीय व्यवस्था के ‘लोकाचार’ में किसी भी मुख्यमन्त्री का स्तर केन्द्रीय मन्त्रिमंडल के किसी कैबिनेट स्तर मन्त्री के बराबर होता है और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री को सरकारी खर्चे पर आवास की सुविधा सुलभ कराने का नियम नहीं है। अतः कानूनी नुक्ते से देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला संवैधानिक अनुबन्धों की ताकत से निर्देशित होता है जिस पर पुनर्विचार करने का कोई भी विचार राजनीतिक नेताओं द्वारा सार्वजनिक सुविधाओं को बलात् हथियाने के रूप में ही देखा जाएगा।
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्रियों को आवास की सुविधाएं सुलभ कराने के राज्य सरकार के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका पर यह फैसला आया है मगर विद्वान न्यायाधीशों ने स्पष्ट कर दिया है कि यह फैसला देश के सभी राज्यों में एक समान रूप से लागू होगा। यदि भारत के सभी राज्यों में पूर्व मुख्यमन्त्रियों को सरकारी बंगले नामचारे के किराये पर जीवन पर्यन्त अवधि के लिए दिए जाते हैं तो आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उन पर कितना धन वहां की राज्य सरकारें खर्च करती होंगी? परन्तु इसका दूसरा पहलू भी महत्वपूर्ण है कि सादगी से राजनीतिक जीवन बिताने वाले और ईमानदारी के साथ राज्य की सेवा करने वाले पूर्व मुख्यमन्त्रियों के प्रति लोकतन्त्र का क्या कर्तव्य बनता है? परन्तु इसके साथ ही सवाल खड़ा होता है कि केवल मुख्यमन्त्री को ही इसका लाभ क्यों मिलना चाहिए? अतः आवश्यक है कि हम एेसी प्रणाली विकसित करें जिसके तहत अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देकर सार्वजनिक जीवन में रहने वाले राजनीतिज्ञों को रियायती दरों पर स्थायी आवासीय सुविधा देने का रास्ता ढूंढा जा सके।
अकेले उत्तर प्रदेश में ही राजस्थान के राज्यपाल पद पर विराजमान कल्याण सिंह से लेकर कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी और मुलायम सिंह व सुश्री मायावती तथा अखिलेश यादव एेसी सुविधा का लाभ उठा रहे हैं। इतना ही नहीं जो पूर्व मुख्यमन्त्री स्वर्ग सिधार चुके हैं उनके परिवार के लोग भी यह सुविधा प्राप्त कर रहे हैं। इनमें स्व. वीर बहादुर सिंह व रामनरेश यादव के नाम लिए जा रहे हैं। केवल इस नियम के चलते कि पूर्व मुख्यमन्त्री सरकारी बंगले के हकदार होंगे ये सभी लोग जनता के धन की कीमत पर सुविधाएं भोग रहे हैं जबकि इनमें से किसी की भी माली हालत एेसी नहीं है कि वे अपने लिए कोई निजी आवास न बना सकें। कल्याण सिंह को लखनऊ में आवास की क्यों जरूरत है? बिहार में श्री लालू प्रसाद व उनकी पत्नी राबड़ी देवी दोनों ही पूर्व मुख्यमन्त्री हैं और दोनों को ही सरकारी आवास आवंटन किया गया है। यहां तक कि बिहार के वर्तमान मुख्यमन्त्री श्रीमान नीतीश कुमार भी पूर्व मुख्यमन्त्री के कोटे से एक अलग से सरकारी बंगला लिये बैठे हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि आज की राजनीति एेसी नहीं है जैसी स्वतन्त्रता के बाद के आजाद भारत की थी और मुख्यमन्त्रियों के पास अपना निजी मकान बनाने तक के पैसे नहीं होते थे।
इस सन्दर्भ में ओडिशा के मुख्यमन्त्री रहे स्व. नवकृष्ण चौधरी का उदाहरण आज के राजनीतिज्ञों के लिए आंखें खोल देने वाला है। जब 1956 में राज्य विधानसभा में दल-बदल के चलते कांग्रेस पार्टी की उनकी सरकार का भविष्य दैनिक आधार पर तय होने लगा तो उन्होंने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और वह अपनी पत्नी के साथ अपने सिर पर अपने निजी सामान की गठरी बांध कर पैदल ही कटक के समीप गांधी आश्रम में रहने के लिए चले गए। उन्होंने राज्य सरकार की कार का इस्तेमाल करना भी अनुचित माना। इसी प्रकार लोकसभा के अध्यक्ष रहे श्री आयंगर का उदाहरण है। जब वह इस पद से हटने के बाद अपने राज्य तमिलनाडु के लिए दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी में चढ़ने गए तो उनके सिर पर उनके सामान का ट्रंक रखा हुआ था और श्री आयंगर रेलवे प्लेट फार्म पर अपनी रेलगाड़ी का पता सह यात्रियों से पूछ रहे थे मगर आजकल के पूर्व मुख्यमन्त्रियों को भी जैड श्रेणी की सुरक्षा चाहिए, उसके बिना उनके रुतबे का अहसास ही आम जनता को नहीं होता। सार्वजनिक जीवन में जनता की सेवा करने की जगह वे जनता के पैसे पर सुविधा भोगी बने रहना चाहते हैं मगर राजनीति का गिरता स्तर इसका प्रमुख कारण है जिसकी पहली जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की ही है जिनकी वरीयताएं बदल चुकी हैं और सियासत को जिन्होंने तिजारत में बदल कर रख दिया है।
सवाल यह है कि इस माहौल को बदलने के लिए अगर न्यायपालिका की तरफ से सुधारवादी कदम संवैधानिक परिसीमा में उठाया जाता है तो आम जनता उसका स्वागत करेगी। यह अपनी जगह अटल सत्य है कि 2016 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के बड़े पूर्व अफसरों की तरफ से दायर याचिका पर लगभग आज वाला फैसला ही दिया था मगर तब राज्य के समाजवादी मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने उसे निरस्त करने के लिए विधानसभा में कानूनी संशोधन कर दिया था और कमाल देखिये कि उन्होंने चुनावों से पूर्व ही अपने बंगले में करोड़ों रुपए लगा कर उसका नवीनीकरण कर लिया था क्योंकि सत्ता से हटने के बाद उन्हें पूर्व मुख्यमन्त्री के कोटे से बंगला मिलना ही था। यह फर्क है आज की तिजारती राजनीति में और हमारे सार्वजनिक जीवन के ईमानदार पुरोधाओं की राजनीति में जिन्होंने किसी न किसी स्तर देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेते हुए अपनी निजी सम्पत्ति तक को फूंक डाला था। पुराने नियम वैसे ही राजनीतिज्ञों के लिए बने थे, आज के मुनाफाखोर राजनीतिज्ञों के लिए नहीं।