भारत ने आजादी के बाद जिस संसदीय लोकतन्त्र को अपनाया उसकी पवित्रता, शुचिता तथा पारदर्शिता की व्यवस्था हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार की कि बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली की शासकीय अदला–बदली का इसके मूल ढांचे पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़े। इसके लिए एेसी संवैधानिक और स्वतन्त्र संस्था चुनाव आयोग की स्थापना किया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसके साथ ही संसद से लेकर विधानसभाओं तक में ‘अध्यक्ष’ पद की स्वतन्त्र सत्ता की व्यवस्था भी दलीय बहुमत से चुनी गई सरकारों की निरंकुशता को नियंत्रित करने की कारगर विधि थी। भारत के लोकतन्त्र के बाहरी व भीतरी दोनों ही आवरणों को निरपेक्ष बनाये रखने की यह एेसी मजबूत तजवीज हमारे पुरखों ने लागू की जिससे आज सत्तर वर्ष बाद भी हम स्वयं को ‘जनता की सरकार’ की पद्धति से जुड़ा पाते हैं और पूरी दुनिया हैरत भरी नजरों से उस भारत को देखती है जिसने आजादी के समय 1947 में दुनिया के पिछड़े देशों और गरीब देशों की फेहरिस्त में निचला स्थान होने के बावजूद लगातार तरक्की इस तरह की कि यह आज दुनिया के बीस प्रमुख औद्योगिकृत देशों की जमात में शामिल हो गया।
यह काम उस पक्के इरादे और ईमानदार नीयत से किया गया जिसके लिए हमारे आजादी की लड़ाई के योद्धा जाने जाते थे। इसका एक बहुत सुन्दर उदाहरण यह है कि भारत के प्रथम उप-प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जब मृत्यु हुई तो उनकी कुल जमा सम्पत्ति केवल 259 रुपये थी। पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी सारी सम्पत्ति देश के नाम कर दी थी मगर इन बड़े नामों के अलावा और भी एेसी विभूतियां थीं जिन्होंने आजाद भारत में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों के चलते और अपनी निजी विश्वसनीयता पर सन्देह लगने के बावजूद राजनीति में सम्पत्ति या धन को कभी अपना ध्येय नहीं बनाया। एेसे लोगों में मैं यहां केवल दो और महान हस्तियों का जिक्र करूंगा जिनमें से एक उत्तर के थे और दूसरे दक्षिण के। स्व. चन्द्र भानु गुप्ता उत्तर प्रदेश के एेसे मुख्यमन्त्री थे जिन्हें राज्य का लौह पुरुष कहा जाता था। उन पर विपक्षी पार्टियां विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार के आरोप तक लगाती रहती थीं। वह इन सब आरोपों को कभी गंभीरता से नहीं लेते थे और केवल इतना कहते थे कि जनसंघ और संसोपा को जिस दिन सत्ता में आने का सौभाग्य मिल जायेगा आम जनता उस दिन स्वयं परख कर लेगी कि राजनीति में बेईमानी किसे कहते हैं।
गुप्ताजी की एक विशेषता थी कि वह अपनी पार्टी कांग्रेस के लिए चन्दा जमा करने में निपुण माने जाते थे मगर जब उनकी मृत्यु हुई तो उनका कुल जमा बैंकों में धन दस हजार रुपए था। धुर दक्षिण के राज्य केरल के प्रतिभाशाली और कुशाग्र राजनीतिज्ञ स्व. वी.के. कृष्णा मेनन त्रावणकोर रियासत के दीवान के सुपुत्र थे। उनकी सम्पत्ति बेहिसाब थी। वह जब राजनीति में आये तो उन्होंने यह सारी सम्पत्ति एक ट्रस्ट बनाकर उसे दे दी, 1962 के भारत–चीन युद्ध में भारत की पराजय होने पर उन पर बहुत ही गिरे हुए आरोप तक लगाए गए मगर सफेद कुर्ते और लुंगी में पूरे भारत में भ्रमण करने वाले स्व. कृष्णा मेनन के अपने खर्चे के लिए संसद से मिलने वाली सांसद पेंशन ही बहुत थी। स्व. कामराज के बारे में मैं कई बार लिख चुका हूं कि किस प्रकार उन्होंने गरीबी की पराकाष्ठा में जीते हुए अपना राजनीतिक सफर तय किया था और आमजन के दिलों में अपनी जगह बनाई थी। इन सब बातों का जिक्र करने का मेरा एक ही मकसद है कि एेसे व्यक्तित्व के मालिक राजनीतिज्ञों के समक्ष बड़े से बड़ा नीयत में खोट वाला व्यक्ति बौना हो जाता था।
उन्होंने भारत के लोकतंत्र के बाहरी और भीतरी आवरण की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के साथ कभी भी किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की। बेशक एेसे अवसर भी आए जब आम जनता ने उनकी इस शख्सियत को समझने में गफलत की। मेरा आशय केवल यह है कि हम जिस लोकतन्त्र के मजबूत और सुगठित ढांचे में रह रहे हैं उसमें निजी या दलीय हितों को साधने की ललक से इसमें जंग लग सकता है क्योंकि आजकल के राजनीतिज्ञों का चरित्र अपनी और अपने परिवार की पीठ इस कदर मजबूत करना है कि उनकी आने वाली पीढि़यां भी आर्थिक संकट में न पड़ सकें। सत्ता की लूट–खसोट में इनकी कोई हद तय करना मुश्किल है और इसे पाने की लालसा में जनता के हितों को ठोकर पर रखना इनका स्वभाव बन चुका है। एेसी स्थिति के लिए संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने आगाह किया था और कहा था कि लोकतन्त्र कभी भी कबीलों के तौर-तरीकों से नहीं चल सकता। लोकतन्त्र में सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए ही स्वतन्त्र और निष्पक्ष संस्थाओं की स्थापना हमारे पुरखों ने बहुत कशीदाकारी के साथ की है और इस तरह की है कि सत्ता उन्हें किसी भी तरह प्रभावित न कर पाए क्योंकि इस व्यवस्था में सत्ता किसी न किसी राजनीतिक दल की ही होती है। इसी वजह से हमारे संविधान में न्यायपालिका को अलग से स्वतन्त्र समानान्तर दर्जा दिया गया।