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भारत में बढ़ते उन्मादी समूह

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क्या भारत वास्तव में प्रगति कर रहा है या पीछे जा रहा है। वर्तमान में जो घट रहा है उसे देखते हुए तो यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। पहले फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर विवाद, ​हिंसक प्रदर्शन, उग्र स्वर, नाक-कान काट देने की धमकियों के बाद फिल्म की रिलीज अभी तक टली हुई है। अब नए साल के जश्न के दौरान कर्नाटक सरकार ने अभिनेत्री सनी लियोनी के शो पर प्रतिबंध लगा दिया है। रक्षा वेदिके सेना नाम के संगठन ने सनी लियोनी के शो का विरोध यह कहकर किया कि यह शो भारतीय संस्कृति का अपमान है। संगठन ने धमकी भी दी थी कि अगर सनी लियोनी का शो रद्द नहीं किया गया तो सामूहिक आत्मदाह किया जाएगा। कर्नाटक सरकार और पुलिस ने अब कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका का बहाना बनाकर कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर दिया है। राजस्थान के राजसमंद की घटना ने तो पूरे देश को हिलाकर रख दिया है, जिसमें शंभुलाल नामक व्यक्ति ने अफराजुल नामक अल्पसंख्यक समुदाय के एक मजदूर की हत्या कर उसका वीडियो बनाकर वायरल कर दिया था। इस तरह की घटनाएं अब तक केवल आतंकी संगठन करते आए हैं। हत्या के बाद धार्मिक उल्लास, नारेबाजी आैैर उसका प्रदर्शन। हैरानी की बात तो यह है कि हत्यारे के समर्थन में सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक एक अभियान चलाया जा रहा है।

हत्यारे के समर्थन में रैलियां करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। यह किसी भी प्रकार धार्मिक कृत्य नहीं हो सकता। धर्म को लेकर कट्टरता की बात तो पुरानी है। मध्य युगीन बर्बरता से होती हुई यह कट्टरता नए रूप में हमारे सामने उपस्थित हो चुकी है। कभी महात्माओं ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था कि जो सहज है वही धर्म है। ‘‘जाति-पाति पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि को होई’’ यानी जो ईश्वर की स्तुति करता है, वही ईश्वर का होगा। जब भी हम इतिहास में जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि धर्म के नाम पर ईश्वर की जो ‘सत्ता’ निर्मित की गई वह सत्ता ईश्वर की सत्ता नहीं बल्कि वह समाज के कुछ वर्गों की सत्ता होती है जो अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए धार्मिक भावनाओं या जाति अस्मिता का इस्तेमाल करते हैं। इतिहास की कई क्रांतिकारी घटनाएं हमें धर्म के नाम पर उभर रही सत्ताओं को पहचानने में मदद करती हैं। धार्मिक कट्टरता आज समूचे विश्व के धरातल पर कई रूपों में उभर रही है, इसके पीछे सत्ता और वर्चस्व की भावना निहित है। इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन भले ही इस्लामी कट्टरता के केन्द्र में हों लेकिन उनका उद्देश्य अपना इस्लामी साम्राज्य स्थापित करना ही है। धार्मिक भावनाओं की खेमेबंदी ही ऐसी कट्टरता को जन्म देती है। आम आदमी सोचने को विवश है कि वह इस खेमेबंदी को कैसे देखे। काेई धर्मांध व्यक्ति किसी की हत्या कर दे तो इससे आम आदमी को कोई धार्मिक संतुष्टि नहीं मिलती। क्या इस हत्या से किसी को लगता है कि किसी धर्म या जाति की विजय हुई है।

पद्मावती का विरोध, किसी अभिनेता या अभिनेत्री के कार्यक्रम पर रोक, खान-पान को लेकर हत्या या फिर हत्या कर कट्टरवाद का प्रदर्शन, यह समाज के लिए अच्छे संकेत नहीं। सवाल धर्म के नाम पर की जा रही राजनीति पर भी उठ रहे हैं। चुनावों से पहले एक या दो दलों को छोड़कर सभी दलों ने पद्मावती का विरोध किया। अब कर्नाटक में भी चुनाव होने वाले हैं तो जाहिर है कि कुछ ऐसे समूह फिर से उठ खड़े होंगे जो धर्म, संस्कृति, जाति अस्मिता काे खतरा बताकर दूसरे वर्गों को शत्रु के रूप में प्रचारित करेंगे। ऐसी घटनाएं सहज हिन्दू मन के लिए कभी भी गौरव की बात नहीं हो सकतीं। आज कट्टरता आैर उदारता के विचार पहचानने की जरूरत है। ऐसे समूहों का पनपना देश के लिए भी घातक है। ऐसे समूहों के उभार को रोकना होगा। ऐसे समूह प्रगतिशील भारत के मार्ग में बाधक ही बनेंगे। भारत के समाज और सभ्यता की मूल प्रवृत्ति नैतिकता की ओर होनी चाहिए। जनभावनाओं का आधार नैतिक होना चाहिए। विरोध के तर्क भी नैतिक होने चाहिएं। अगर हमने विभिन्न धर्म, जाति समूहों का तुष्टीकरण जारी रखा तो विरोध उन्माद में बदल जाएगा। जरूरत है खुद को उन्माद से दूर रखने की।

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