माल व सेवा कर (जीएसटी) को लेकर पूरे देश में जो त्राहि-त्राहि का माहौल बन गया था उसमें राहत देकर वित्त मन्त्री ने दीपावली से पहले छोटे कारोबारियों में हिम्मत जगाने का काम जरूर किया है मगर इसमें अभी और सुधार की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता विशेषकर उन व्यापारियों या उद्यमियों को जो छोटा-मोटा उद्योग-धन्धा करके अपने परिवार को पालने के साथ ही अन्य अप्रशिक्षित लोगों को भी रोजगार मुहैया कराते हैं। जीएसटी के सन्दर्भ में बेशक देश के सभी राज्यों की सरकारों की सहमति है मगर इसके लागू होने की व्यावहारिकताओं पर समय रहते समुचित विचार न करने की वजह से ये दिक्कतें पैदा हो रही हैं, फिर भी वित्त मंत्री ने एेसे कारोबारियों की सीमा 75 लाख रु. वार्षिक कारोबार से बढ़ाकर एक करोड़ रु. करके तर्कपूर्ण कार्य किया है आैर इन सभी को समन्वित देय कर प्रणाली (कम्पोजिट टैक्स) के तहत लाने का फैसला किया है।
एेसे कारोबारियों को साल भर में केवल एक बार ही एक से पांच प्रतिशत कर भुगतान करने वालों की श्रेणी में रख दिया गया है। यह स्वागत योग्य फैसला है किन्तु भारत जैसे विशाल देश के सन्दर्भ में हमें यह विचार जरूर करना होगा कि व्यापार करने का अर्थ बेइमानी ही नहीं होता है। कर चोरी करना हालांकि व्यापारियों की आदत में शुमार होता है मगर इसके लिए अकेले उन्हें ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, इसमें नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार होती है। प्रश्न यह है कि क्या जीएसटी लागू करने के बाद से रातोंरात माहौल बदल जायेगा और नौकरशाही से लेकर कारोबारी वर्ग तक ईमानदारी का पुतला बन जाएगा ? इस सन्दर्भ में भारत की जमीनी हकीकत को हमेशा ध्यान में रखकर ही नीतियों का निर्माण करना चाहिए। महान आर्थिक व राजनीतिक चिन्तक आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि च्राजा को अपनी व्यापारिक प्रजा से उसी प्रकार शुल्क लेना चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों से पराग लेकर अपने छत्ते में शहद का भंडारण करती हैं। इसके साथ ही आचार्य ने यह भी स्पष्ट किया कि राजा प्रजा को पीड़ा देकर शुल्क या कर की उगाही करके अपना खजाना भरने का लालच करता है वह आंधी में आम झड़ने के समान ही साबित होता है। अतः वित्त मंत्री ने २६ जरूरी वस्तुओं पर जीएसटी की दरें घटाने का काम करके यह संदेश देने का प्रयास जरूर किया है कि उनकी नीति जनता को दुःख देकर कर वसूलने की नहीं है। इसके बावजूद जीएसटी के कर ढांचे में अभी बहुत विसंगतियां हैं।
उदाहरण के तौर पर देशभर में जहां एक तरफ स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ घरों में साफ-सफाई रखने के उपयोग में आने वाले च्फिनाइलज् पर जीएसटी की कुल दर 18 प्रतिशत है। बिना शक यह माना जा सकता है कि यदि केन्द्र में जीएसटी लागू करने का काम किसी कांग्रेस या अन्य दलों की सरकार ने किया होता और भाजपा विपक्ष में होती तो पूरे देश में इसने आन्दोलनों की बाढ़ लाकर कई बार भारत बन्द तक करा दिया होता। विपक्ष इस समय राजनीतिक रूप से बहुत कमजोर है और उसमें जनता की जायज अपेक्षाओं तक को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार जन-अपेक्षाओं से बेखबर होकर ही काम करती रहे। वित्त मंत्री ने इन्हीं अपेक्षाओं का ध्यान रखते हुए कल जीएसटी में संशोधन करने की पहल की है। यह क्रम यहीं नहीं रुकना चाहिए क्योंकि जीएसएटी में सुधार व संशोधन की प्रक्रिया इसे व्यावहारिकता में लागू किए जाने के बाद की उपज है। यह कोई छोटा-मोटा संशोधन भी नहीं है क्योंकि इस पर पूरे देश में मतैक्य बनाने में कम से कम 16 वर्ष लगे हैं और संविधान में संशोधन लाकर यह कार्य किया गया है जबकि विभिन्न राज्यों ने भी देशहित में अपने आर्थिक हितों का बलिदान करने में पीठ नहीं दिखाई है।
अतः राज्य सरकारों का भी यह दायित्व बनता है कि वे अपने-अपने प्रदेशों में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों से केन्द्र को अवगत कराती रहें। वैसे संशोधन आदि करने के फैसले जीएसटी काउंसिल ही लेगी जिसमें सभी प्रदेशों के वित्त मंत्री शामिल हैं। वित्त मंत्री को इस बाबत अपना दिल बहुत बड़ा रखना होगा और व्यापक जनहित में फैसला लेते वक्त अधिक राजस्व उगाही का मोह भी त्यागना होगा और हर हालत में छोटे कारोबारियों को इंस्पैक्टर राज के चंगुल से बचाना होगा क्योंकि जीएसटी की मूल अवधारणा व्यापार की एेसी तकनीक है जिसमें जायज तौर पर सरकार को दिया जाने वाला कर वाणिज्यिक स्वीकार्यता के दायरे में स्वतःस्फूर्त रूप से आए। जनता उम्मीद कर रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेतली जीएसटी में और सुधार करके देशवासियों को राहत पहुंचाएंगे।