”मन आहत है, आंखें नम
कितना पिया जाए गम
नहीं देखा जाता बिछी हुई लाशों का ढेर
नहीं सहन होती मां की चीख
नहीं देखा जाता छनछनाती चूडिय़ों का टूटना
नहीं देखा जाता बच्चों के सिर से उठता मां-बाप का साया
न जाने कब थमेगा यह मृत्यु का नर्तन
यह भयंकर विनाशकारी तांडव
न जाने कितनी मासूम जानें लील लेगा
और भर जाएगा पीछे वालों की जिन्दगी में अंधेरा।”
आज जब भी जवानों की शहादत की खबर आती है, तो हृदय पीड़ा से भर जाता है। मुझे उनके परिवारों की पीड़ा का अहसास होने लगता है। जिस तन लागे, वो तन जाने, दुनिया न जाने पीर पराई। मैं और मेरे परिवार ने सारी स्थितियों को झेला है। 12 मई, 1984 को नियति ने ऐसा ही निर्णय लिया था, आज ही के दिन मेरे पिता परमपूज्य श्री रमेश चन्द्र जी को मुझसे छीन लिया था। एक-एक दृश्य मेरे सामने कोंधता है। आतंकवाद का वह दौर, सीमा पार की साजिशें, विफल होते प्रशासक, बिकती प्रतिबद्धताएं और लगातार मिलती धमकियों के बीच मेरे पिता ने शहादत का मार्ग चुन लिया था। उन्हें राष्ट्र विरोधी ताकतों ने गोलियों का निशाना बना डाला था। सीमाओं की रक्षा करने वाले जवान ही अपनी शहादतें नहीं देते बल्कि समाज के भीतर रहकर भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बलिदान दिया जा सकता है, यह मैंने परमपूज्य पितामह लाला जगतनारायण, जो पूर्व में आतंकवाद का दंश झेल शहादत दे चुके थे, उनसे ही सीखा था। मैं दिल्ली कार्यालय में था, टेलिप्रिंटर टिकटिक की ध्वनि के साथ खबरें उगलता जा रहा था कि अचानक मुझे एक पत्रकार मित्र का फोन आया, उसने केवल इतना ही कहा-अश्विनी जी, आप टेलीप्रिंटर देख लें। अनहोनी की आशंकाएं तो उन दिनों बनी रहती थीं। मैं तेजी से टेलीप्रिंटर देखने पहुंचा तो फ्लैश न्यूज आ चुकी थी। पंजाब केसरी प्रकाशन समूह के मुख्य सम्पादक रमेश चन्द्र की जालंधर में हत्या। इसके बाद व्यक्तिगत रूप से पिताजी के महाप्रयाण की सूचना शाम 6 बजे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने दी थी। श्रीमती गांधी ने मुझसे इतना ही कहा-अफसोस है हम तुम्हारे पिता को बचा नहीं सके। बाद में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने मुझे अविलम्ब विमान से दिल्ली से जालंधर पहुंचाया। हालात बहुत तनावपूर्ण थे।
कभी-कभी पूर्वजों के बारे में लिखना बहुत कठिन होता है, परन्तु मैं ही जानता हूं कि उनकी शहादत ने मुझे झकझोर कर रख दिया है। पिताजी के शरीर में शायद एक इंच भी जगह न बची हो जहां स्वचालित राइफलों की गोलियां न धंसी हों। मैंने उस दिन हिम्मत बटोरी और खुद को बड़ा संयत किया परन्तु जब इन्हीं हाथों से पिता की काया को अग्रि को समर्पित किया तो बांध टूट गया और ऐसा लगा मानो ये पंक्तियां जीवंत हो उठी हों-
”तनव जनक का शव लेकर जब
अंतिम बार लिया कंधों पर
आकर चिता सजा, धीरज पर
रख देता अंतिम पालने पर
अपने हाथों फूंक-फूंक कर
धीरज बांध टूट जाता पर
उठता कह चीत्कार पिता …वह
गिर जाता असहाय भूमि पर
दया मुझे आती है लख कर
ऐ मरघट के पीपल तरुवर।”
उनकी शहादत हिन्दू-सिख भाइचारे के लिए थी, उनकी शहादत पंजाब को बचाने के लिए थी। मैंने उसी दिन से कलम सम्भाल ली थी। 43 वर्ष हो गए लगातार लिखते-लिखते, आज भी मैं अपने शयन कक्ष में लगी उनकी शादी की तस्वीर देखता रहता हूं। मैं आज भी उनकी डायरी से बातें करता हूं जो मेरे लिए अनमोल है। कभी-कभी मैं तन्हाई में भी उनसे बातें करता हूं। पिताजी की कलम मेरा मार्गदर्शन करती है। आज जीवन और मृत्यु को कैसे परिभाषित करूं? कौन करे इस जीवन का हिसाब-किताब? ये तो ठीक वैसा ही है-
”जीवन के दिन रैन का कैसे लगे हिसाब
दीपक के घर बैठकर लेखक लिखे किताब।”
मैं अपने पिताश्री को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं। आतंकवाद तब भी था आज भी है, स्थितियां पहले से कहीं अधिक बदतर हुई हैं। आतंकी तांडव कर रहे हैं, कौन-कौन इस तांडव में शहादत देगा, हमें कितना और खून देना होगा, कोई अनुमान नहीं। मां भगवती को पुकारें- हे मां, हमें इस राष्ट्र की रक्षा के लिए ऊर्जा दो, जोश दो, हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। ॐ शांति-शांति-शांति।