सुकमा के किस्टाराम में नक्सली हमले में शहीद जवानों के पािर्थव शरीर उनके पैतृक स्थानों पर पहुंचा दिए गए। परिवार और लोगों ने नम आंखों से उन्हें विदाई दी। किसी जवान का सपना बड़ा घर बनाने का था, कोई बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहता था। माता-पिता को तो अपने बेटों की शहादत पर गर्व है लेकिन परिवारों की नाराजगी भी नज़र आई। बलिया के शहीद जवान मनोज की विधवा का कहना है कि सुकमा में सरकार ने न तो वहां कोई सुविधा दी है, न ही वहां बात करने के लिए नेटवर्क काम करता है, वहां इंसानों को जानवर की तरह रहना पड़ता है, सरकार को इससे क्या फायदा मिलता है। सरकार को इन हमलों को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।
बिहार सरकार की ओर से शहीद अजय यादव की पत्नी को दिया जाने वाला पांच लाख का चैक उसने वापिस कर दिया। शहीद जवान की विधवा ने कहा कि यह राशि तो शहादत का अपमान है, इतनी राशि तो दुर्घटना में मारे जाने पर सरकार दे देती है। कोई ऐसा नहीं जिसकी आंखों में यह मंजर देखकर आंसू न छलके हों। नक्सलियों से जूझते अब तक सैकड़ों फौलादी जवान शहादत दे चुके हैं। नौ जवानों की शहादत के बाद फिर से सवाल उठने लगे हैं। हर हमले के बाद सरकार कहती है कि उसने इस हमले को चुनौती के रूप में लिया है लेकिन जमीन पर जवानों की सुरक्षा के लिए क्या हो रहा है, कुछ नज़र नहीं आता। सवाल हर किसी के जेहन में है कि क्यों नक्सलियों के आगे कमजोर हो जाता है हमारा सिस्टम।
आधुनिक हथियारों से लैस हमारे जवान क्यों भांप नहीं पाते नक्सलियों की चाल को। आखिर कमजोरियां कहां हैं। यह देश अब और जवानों की शहादत नहीं चाहता। पिछले दो दशक से ज्यादा वक्त में 12 हजार लोगों की जान गई है जिसमें 2700 सुरक्षाकर्मी हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार मारे गए लोगों में 9300 निर्दोष नागरिक शामिल हैं, जिनकी या तो नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर हत्या कर दी या वे सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच की गोलीबारी में आ गए थे। यद्यपि पिछले तीन वर्षों में नक्सल हिंसा में 25 फीसदी गिरावट भी आई है लेकिन हम नक्सलवाद वाले कैंसर का इलाज नहीं ढूंढ पाए।
भारत में सक्रिय नक्सलियों की संख्या 20 हजार है जिनमें से 6 से 8 हजार नक्सली खूंखार हमलावर हैं। देश की आंतरिक सुरक्षा में लगे सशस्त्र पुलिस बलों में शामिल जवानों की संख्या 9 लाख से ज्यादा है। उनके पास आधुनिक हथियार और बेहतर ट्रेनिंग की सुविधा है। फिर भी हमें बार-बार अपने जवानों के शव स्वीकार करने पड़ते हैं। गुरिल्ला वार के सहारे छिपकर हमला करने वाले नक्सली आए दिन हमारे जवानों को मार देते हैं लेकिन हम कुछ नहीं कर पाते। नक्सली हमला करने के तरीके बार-बार बदलते हैं। उनकी रणनीति हमेेशा से यही रही है कि जब सुरक्षा बल हावी होते हैं तो वह छितर जाते हैं। फिर अपनी शक्ति बटोरते हैं और मौका पाते ही हमला कर देते हैं।
यह बात सही है कि नक्सलियों का असर कम करने में सुरक्षा बलों को काफी हद तक कामयाबी मिली है, माओवाद का आधार खिसक रहा है। केन्द्र और राज्य सरकारें जब भी दावा करती हैं कि नक्सली समस्या अब खत्म होने के कगार पर है, तब-तब नक्सलवादी अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। वे ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं कि उनमें अब भी ताकत है, उनकी मौजूदगी बनी हुई है। पुराने घाव भरते नहीं, नए घाव हो जाते हैं। कभी कश्मीर में आतंकवाद तो कभी मध्य भारत में नक्सलवाद। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि नक्सलियों आैर नक्सलवाद से कैसे निपटा जाए।
नक्सलवादी आंदोलन अपने रास्ते से भटक चुका है। आंदोलन तो लोकतांत्रिक तरीके से जायज मांगों के लिए किया जाने वाला संघर्ष होता है, जिसमें राष्ट्रीयता की भावना होती है लेकिन अब नक्सलवादी लुटेरों का गिरोह हो गए हैं, उनको पैसे दिए बिना कोई काम नहीं कर सकता। कोई भी व्यापारी पैसे दिए बिना व्यापार नहीं चला सकता। सड़कें वे बनने नहीं देते, रेल पटरियों, पुलिस थानों आैर स्कूलों को बमों से उड़ाते हैं। अवैध खनन इनका धंधा है। अफीम की खेती करके धन जुटाते हैं। शोषण आैर भ्रष्टाचार में लिप्त व्यवस्थाओं के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन अब विकृत हो चुका है। यही कारण रहा कि इस आंदोलन के जनक कानू सान्याल ने अपनी विचारधारा की दुर्गति देखकर आत्महत्या कर ली थी।
हिंसा का बार-बार तांडव करने वाले नक्सलियों के खिलाफ आर-पार की लड़ाई का समय आ चुका है क्योंकि नक्सलवादी अब तालिबानी रूप ले चुके हैं। नक्सलियों को केवल भटके हुए नागरिक मानना एक विकराल समस्या के प्रति आंखें मूंदना होगा। मुझे लगता है कि अब नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने के लिए सेना की मदद लेने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए। आतंकवाद का मुकाबला सेना कर रही है तो फिर सेना को ही नक्सलवाद का सफाया करने के लिए लगाया जाना चाहिए। सेना को 6 माह तक अभियान चलाकर नक्सलवाद को खत्म करना चाहिए। केवल बयानबाजी से काम चलने वाला नहीं। जवानों की शहादत देश की अस्मिता पर बड़ा दाग है। केन्द्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे सेना को आप्रेशन की कमान दें, तभी नक्सलवाद का अंत होगा।