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महाभियोग का मोहभंग होना !

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देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का संकल्प राज्यसभा के सभापति श्री वेंकैया नायडू ने नामंजूर कर दिया है मगर इससे न तो सत्ताधारी दल को प्रसन्न होने की जरूरत है और न विपक्षी दलों को दुःखी होने की जरूरत है। दोनों ही मामलों में इस देश की न्यायपालिका की निष्पक्षता निशाने पर आई है। अतः सबसे बड़ी चिन्ता की बात हमारी उस न्यायप्रणाली के लिए है जिसके मुख्य न्यायाधीश के ‘सदाचार’ को लेकर बहस छिड़ी हुई है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर शक की अंगुली उठी और इसके निवारण के लिए संविधान में दिये गये प्रावधान के अनुरूप संसद के सदस्यों ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उन्हें पदमुक्त करने का संकल्प राज्यसभा के सभापति को दिया। इस संकल्प में लगाये गये आरोपों का खुलासा इन सांसदों ने सभापति को संकल्प देने के बाद एक प्रेस कान्फ्रेंस में किया जिसकी अनुमति हमारी संसदीय प्रणाली देती है मगर इससे भी ज्यादा गंभीर प्रश्न यह है कि हम उस दलदल में फंसते जा रहे हैं जिसमें लोकतन्त्र के सभी पाये खुद को लाचारी में देख रहे हैं। संसद का बजट सत्र जितनी बेचारगी से कभी सत्ता और कभी विपक्ष की तरफ देखकर समाप्त हुआ उससे पूरे देश के लोगों में झुंझलाहट का वातावरण बनता जा रहा है। लोकसभा में एेसा पहली बार देखने को मिला कि रोजाना अविश्वास प्रस्ताव रखा जाता हो और रोजाना इसकी अध्यक्ष यह कहकर इस संवैधानिक मुद्दे को टाल देती हों कि सदन में वह व्यवस्था नहीं पा रही हैं जिससे अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में खड़े होने वाले सांसदों की वह गिनती कर सकें?

जाहिर है कि यह हक लोकसभा के सभी सांसद अध्यक्ष को देते हैं। हम अपनी आंखों के सामने ही देख रहे हैं कि संसद में न भाजपा जीत रही है और न कांग्रेस जीत रही है बल्कि स्वयं संसद हार रही है। हमारे लोकतान्त्रिक संस्थानों की यह हार हमें चेतावनी दे रही है कि हम उस अन्धी गली के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं जहां रास्ता बन्द होता है। लोकतन्त्र में सरकारों का कोई महत्व नहीं होता बल्कि संस्थानों का महत्व होता है क्योंकि उनके माध्यम से ही सरकारें काम करती हैं। यदि हम इन संस्थानों को ही ठप्प कर देंगे तो संविधान स्वयं माथा फोड़ने लगेगा क्योंकि सभी संस्थान संविधान से ही ताकत लेते हैं। यह सुसंगठित अराजकता को दावत देने की निशानी होती है। एेसा प्रायः कम्युनिस्ट देशों में होता है जहां सत्ता संविधान को निर्देश देने लगती है। हम गांधीवादी विचारों पर चलने वाले लोकतान्त्रिक देश हैं और इसका पहला सिद्धान्त यह है कि शिखर पर बैठे व्यक्ति को सभी सन्देहों से परे होना चाहिए तभी जमीन पर हम स्वच्छता देख सकते हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हमारी लब्ध प्रतिष्ठित उच्च न्यायपालिका को लेकर पिछले कुछ वर्षों में संशयपूर्ण वातावरण बना है। इससे लोकतन्त्र को जो नुकसान हो सकता है उसका अन्दाजा हमें आने वाले 10 वर्षों के बाद होगा। अतः सबसे जरूरी है कि हम उन कारणों की तह तक जायें जिनकी वजह से इस प्रकार का वातावरण बन रहा है। निश्चित रूप से इसकी वजह हमें राजनीति में ही मिलेगी।

राजनीति को केवल चुनाव जीतने का औजार बनाकर हमने भारत की आधुनिक पीढ़ी को राजनीति शून्य कर डाला है मगर हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस दूरदृष्टि के साथ इस देश के मतदाताओं के हाथ में सरकार बनाने या बिगाड़ने अथवा लोकतन्त्र को हमेशा सजग व ऊर्जावान बनाये रखने के अधिकार दिये हैं उनका आकलन हम बाजार के सस्ते नियमों के तहत नहीं कर सकते। संविधान के अनुच्छेद 75 में जिस तरह लोकसभा में सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने के नियम हैं उसी प्रकार उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 (4) के तहत नियम हैं। न्यायाधीशों को अपना सेवाकाल पूरा करने की गारंटी राष्ट्रपति उन्हें पद स्थापित करने के वारंट के साथ ही देते हैं। उन्हें बीच में पदमुक्त करने का अधिकार चुने गये सांसदों के माध्यम से आम जनता को ही हमारे पुरखों ने देकर तय किया कि निरंकुशता के लिए लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं रहना चाहिए।

वास्तव में न्यायाधीशों को हटाने के लिए महाभियोग का शब्द संविधान में नहीं है। यह शब्द केवल राष्ट्रपति को हटाने के लिए ही प्रयोग किया गया है। मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के लिए भी यह क्षण बहुत गंभीर है। लोकतन्त्र में जन अवधारणा का महत्व सर्वाधिक होता है। इसे श्री मिश्रा से बेहतर और कोई नहीं जान सकता। यह अवधारणा स्थिति सापेक्ष होती है, यदि उनकी उपस्थिति में ही देश का कानून मन्त्री प्रधानमन्त्री के मौजूद रहते यह कहता है कि जब भारत के परमाणु बम का बटन प्रधानमन्त्री के हाथ में दिया जा सकता है तो मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार प्रधानमन्त्री को क्यों नहीं दिया जा सकता? बताता है कि जमीन पर हालात कैसे दिख रहे हैं। इसीलिए संस्थानों की स्वायत्तता से लेकर स्वतन्त्रता लोकतन्त्र को भीतर से झिंझोड़ती रहती है।

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