कश्मीर को अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनाने के लिए पाकिस्तान ने अब फिर से वही रास्ता अपनाना शुरू कर दिया है जिस पर वह 1972 से पहले चला करता था। ब्रिटेन के बर्मिंघम शहर में हो रहे भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान कश्मीर की आजादी के पोस्टरों को लेकर इसके झंडे के साथ कुछ कथित आन्दोलनकारी खड़े होकर नारे लगा रहे थे। क्रिकेट के मैदान का राजनीतिकरण करने का इससे शर्मनाक उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता है। पाकिस्तान अपने उस लिखे हुए को पढऩे से दूर भाग रहा है जिस पर उसकी तरफ से इसके तत्कालीन सत्ता प्रमुख जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किये थे। इस कागज को शिमला समझौता कहा जाता है। इसमें पाकिस्तान ने अहद किया था कि वह कश्मीर का मसला किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने से बाज आयेगा क्योंकि दोनों मुल्कों के बीच जितने भी विवाद होंगे वे केवल आपसी बातचीत से ही हल किये जायेंगे जिनमें कश्मीर का मामला भी शामिल है मगर कारगिल युद्ध के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर के मसले को फिर से अन्तर्राष्ट्रीय बनाने की शुरूआत बड़े ही शातिराना अन्दाज में की। इसके लिए इसने बंगलादेश युद्ध हार जाने के बाद छद्म युद्ध का रास्ता अपनाया और भारत में आतंकवाद को फैलाने की रणनीति बनाई। इस देश ने जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाने के बाद भारत के साथ आमने-सामने की लड़ाई लडऩे की जगह हजार जख्म देने की राह पर आगे बढऩा शुरू किया और इसके लिए कश्मीर को ही केन्द्र में रखा गया। यह रणनीति इस मुल्क के फौजी हुक्मरान जिया-उल-हक ने तैयार की और वहां की फौज ने दहशतगर्दों की टुकडिय़ां इस काम के लिए बनानी शुरू कीं।
80 के दशक में अफगानिस्तान में तालिबानी निजाम को शह देने वाली पाकिस्तानी सरकार ने हिन्दू विरोध के नाम पर तालिबान दहशतगर्दों का मुंह भारत के कश्मीर की तरफ मोडऩा शुरू किया और इस सूबे में अफरा-तफरी मचाने की नींव रखनी शुरू कर दी। इसके बावजूद इसकी हिम्मत तब तक कश्मीर का पुन: अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की नहीं हुई। इसकी राह में शिमला समझौता लगातार कांटा बना रहा मगर बाद में जिया-उल-हक की एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के बाद नब्बे के दशक के शुरू होते ही इसने आतंकवाद का खूनी खेल शुरू कर दिया। दुर्भाग्य से भारत में तब नई दिल्ली में कमजोर सांझा सरकारों का दौर शुरू हो गया जिसकी शुरूआत विश्वनाथ प्रताप सिंह की बे-इकबाल सरकार से हुई। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह पहली ऐसी सरकार थी जिसकी विदेश नीति पूरी तरह लावारिस थी। ऐसी कमजोर सरकार के राज में कश्मीर में आतंकवाद का कहर तब बरपा हुआ जब इसके गृहमन्त्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का अपहरण करके भारत की जेलों में कैद आतंकवादियों को छुड़वाया गया। इसके बाद से जैसे-जैसे आतंकवाद बढ़ता गया वैसे-वैसे ही पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की डगर पर आगे चलता गया। पाकिस्तान ने भारत की सीमाओं पर तनाव पैदा करके कश्मीर को शिमला समझौते के सींखचों से बाहर निकालने की पुरजोर कोशिश कर दी और इसके लिए वह आतंकवाद को भारत में बढ़ाकर दुनिया का ध्यान खींचने की नाकाम कोशिश करने लगा। भारत की कश्मीर नीति की उस दिन धज्जियां उड़ गईं जब सितम्बर 1998 में दक्षिण अफ्रीका में गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में इस देश के महान क्रान्तिकारी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने इसके मंच से कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता करने की पेशकश कर डाली थी। इस बैठक में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी उपस्थित थे। भारत के लिए नेल्सन मंडेला द्वारा कश्मीर मुद्दा उठाया जाना किसी बड़े आघात से कम नहीं था लेकिन पाकिस्तान ने इसके बाद ही 1999 में कारगिल युद्ध किया था और हमारी सीमा के कश्मीर के फौजी ठिकानों पर कब्जा जमाने की कोशिश की थी। इसके बाद से लगातार आतंकवाद में इजाफा करना पाकिस्तान की विदेश नीति का अंग बन गया और कश्मीर में स्थानीय स्तर पर दहशतगर्द तंजीमों को मदद देना उसका धर्म बन गया। यह पूरा इतिहास लिखने का सबब यही है कि हमें अब ऐसे ठोस उपाय ढूंढने होंगे जिससे कश्मीर से ही हिन्दोस्तान जिन्दाबाद की आवाजें आयें। इसके लिए बाकायदा नया खाका बनाना होगा।