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गोरक्षा के नाम पर…

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बचपन से लेकर आज तक मन्दिर में जब-जब जाता हूं जयकारों के बीच एक स्वर में हम सभी हाथ हवा में लहराकर कहते हैं-‘‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, सत्य सनातन धर्म की जय हो, हिन्दू धर्म की जय हो।’’ जब-जब मैं परम श्रद्धेय दादा लाला जगत नारायण जी और दादी जी के साथ मन्दिर में यह जयकारा बोलता तो हिन्दू धर्म की जय बोलने के बाद गरज कर बोलता था-गऊ माता की जय। बाल मन का यह जोश देखकर अनेक हाथ उठते और आशीर्वाद प्रदान कर चले जाते। दरअसल परिवार के लोग गऊ माता को आटे का पेड़ा शाम को देते आैर बाद में खाना खाते। गाय माता के प्रति मैंने परम पूजनीय पिता श्री रमेश चन्द्र जी का स्नेह देखा, इसलिए गाय के प्रति मेरा स्नेह बना हुआ है और बना रहेगा। जिस मां ने हमें दूध दिया, हमें पाला-पोसा और मरने के बाद भी अपनी खाल से हमें जूते-चप्पल दिए, है कहीं दुनिया में ऐसी मां। राम-कृष्ण के देश में गाय माता पर अत्याचार वास्तव में असहनीय है लेकिन गोरक्षा के नाम पर इन्सानों की हत्याएं भी लोकतंत्र में असहनीय हैं।

गाय की पूजा करने और उसके मांस काे न खाने की भावना प्रशंसा के योग्य है लेकिन दुर्भाग्य से इस व्यवस्था ने गाय ब्रिगेड को जन्म दे दिया। स्वयंभू गोरक्षक या गो-संरक्षकों की एक नई जमात खड़ी हो गई। समय-समय पर ये रक्षक गाय के हितों के लिए हिंसक हो जाते हैं। यहां तक कि गोवध और गोभक्षण के संदिग्ध मामलों में भी प्रतिक्रिया देते हैं। गाय के नाम पर सियासत भी कम नहीं होती। मशहूर फनकार जावेद जाफरी की पंक्तियां याद आ रही हैंः
नफरतों का असर देखो, जानवरों का भी बंटवारा हो गया,
गाय हिन्दू हो गई और बकरा मुसलमान हो गया।
पिछले दो वर्षों में गोरक्षा के नाम पर मानव हत्या और मारपीट की वारदातों में लगातार बढ़ौतरी हुई है और कानून के शासन को चुनौती देने वाले संगठनों को कानून का उल्लंघन करने का मानो एक लाइसेंस मिल गया है। हमारे देश में अधिकांश राज्यों में गोहत्या पर पाबंदी पहले से ही है। गोकशी के खिलाफ कानून है लेकिन क्या किसी को यह हक है कि कानून को अपने हाथों में लेकर किसी को केवल एक अफवाह पर जान से मार दे। सितम्बर 2015 में दादरी में अखलाक की हत्या, फिर 2016 में ऊना (गुजरात) में गाय का चमड़ा उतार रहे चार दलित युवकों की पिटाई, इसी वर्ष राजस्थान के अलवर में पहलू खान की हत्या को कोई भी कानून जायज नहीं ठहरा सकता। भीड़ की मानसिकता वाले लोगों के हौसले क्यों बुलन्द हैं क्योंकि उनमें यह विश्वास है कि हम सड़क पर उतरकर जो चाहें कर सकते हैं। पुलिस हमारे खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी, फिर अफवाहें, तथ्यों की अनदेखी, एक खास समुदाय के पहनावे पर धार्मिक विश्वासों के प्रति पूर्वाग्रह या घृणा जैसी कई चीजें सड़क पर तुरन्त मरने-मारने का फैसला करने को प्रेरित करती हैं।

अब फिर राजस्थान के अलवर जिले में पिकअप गाड़ी में गायों के साथ जा रहे एक मुस्लिम की हत्या कर दी गई जबकि दूसरा घायल है लेकिन गोली मारने वाले गोरक्षक थे या पशु तस्कर इसको लेकर स्थिति साफ नहीं। पुलिस इस मामले की जांच कर रही है कि हत्या के क्या कारण हो सकते हैं। कुछ रिपोर्टें मृतक को कथित गो-तस्कर बता रही हैं। उमर की हत्या से मेव समुदाय में रोष है। पुलिस को सच का पता लगाना ही होगा। यह घटना ऐसे समय में हुई है जब अलवर संसदीय सीट पर उपचुनाव की तैयारी चल रही है। क्या उमर की हत्या के पीछे साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की कोई मंशा तो नहीं थी? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी गोरक्षकों को चेतावनी दे चुके हैं कि गोरक्षा के नाम पर हत्याएं स्वीकार नहीं। प्रधानमंत्री ने अगस्त 2016 में भी स्वीकार किया था कि गोरक्षा के नाम पर जो हल्ला मचा रहे हैं उनमें से 80 प्रतिशत लोग असामाजिक तत्व हैं। गोरक्षक का चोला पहने लोग रात को आपराधिक गतिविधियाें को अन्जाम देते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी नागरिक को कानून अपने हाथ में लेने का हक नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी कहते थे-‘‘जैसे मैं गाय को पूजता हूं, वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे ही मनुष्य भी, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू, उपयोगी है। तब क्या गाय बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा? क्या मैं उसे मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय दोनों का दुश्मन हो जाऊंगा। एक ही उपाय है कि मुझे अपने मुस्लिम भाइयों को देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए।’’ गाय के रखवाले पहले ही बेनकाब हो चुके हैं जो रखवाली के नाम पर इन्सानों का खून बहा रहे हैं। जहां न सुनवाई की जरूरत है और न सफाई की। बस भीड़ कर देती है खूनी इन्साफ। तथाकथित गोरक्षक गाय की कोई सेवा नहीं करते बल्कि फासले बढ़ा रहे हैं। कानून तोड़ने वालों को पकड़ने का हक पुलिस को और सजा देने का हक सिर्फ अदालत को है। हिंसा की वजह तलाशी जाए, दोषियों को दंडित किया जाए अन्यथा समुदायों में फासला इतना बढ़ जाएगा कि उसे पाटना मुश्किल होगा।

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