भारत में यदि भगवान राम के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे भड़काए जाने का कार्य किया जा सकता है तो हमें विचार करना होगा कि एेसा करने वाले लोगों को हम किस नाम से पुकारें? निश्चित रूप से एेसे लोगों को हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का भक्त नहीं कह सकते। एेसे लोगों को सिर्फ राम का नाम बदनाम करने वालों की श्रेणी में ही डाला जा सकता है। मगर राजनीति उन सभी मर्यादाओं को खा रही है जिनकी स्थापना श्री राम ने करके भगवान की पदवी पाई थी।
लोकतान्त्रिक भारत में केवल एक मंत्री ही नहीं बल्कि विधायक से लेकर सांसद तक संविधान की उस कसम से बन्धा होता है जो वह सदस्य बनते ही सम्बन्धित सदन में पहुंच कर उठाता है। यह कसम यही होती है कि वह भारत की अखंडता व एकता को अक्षुण्य रखेगा। इसमें देश की भौगोलिक अखंडता ही नहीं बल्कि सामाजिक एकता भी आती है जिसका अर्थ साम्प्रदायिक सौहार्द से होता है।
मगर प. बंगाल से लेकर बिहार तक में साम्प्रदायिक सौहार्द को नष्ट करने के काम में कुछ महारथी लगे हुए हैं और इस तरह लगे हुए हैं कि लोगों को भाईचारा बनाने की जगह आपस में लड़ने के लिए उकसा रहे हैं। कल तक फिल्मी गाने गाने के लिए मशहूर केन्द्रीय राज्यमन्त्री बने बाबुल सुप्रियो प. बंगाल के आसनसोल क्षेत्र से लोकसभा सांसद हैं। उनका यह चुनाव क्षेत्र ही पूरे राज्य में सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक तनाव का कारण क्यों बना हुआ है?
धार्मिक पहचान की राजनीति को प. बंगाल में जमाने के लिए जिस तरह के करतब किये जा रहे हैं उन्हें इस राज्य की आम जनता का समर्थन किसी कीमत पर इसलिए नहीं मिल सकता है क्योंकि बंगाली की पहचान इसकी अपनी विशिष्ट ‘बांग्ला संस्कृति’ से है जिसमें हिन्दू–मुसलमान का भेदभाव केवल पूजा पद्धति के अलग होने मात्र से है, जिसे यहां के लोग नितान्त व्यक्तिगत व निजी मामला मानते हैं।
भारतीय संविधान की आख्या भी यही है कि धर्म किसी भी नागरिक का पूरी तरह निजी मामला है उसका राज्य से कोई लेना–देना नहीं है। मगर हिन्दू–मुसलमान होने को राजनीतिक पहचान देने वाले लोग इस तथ्य को भूल कर जब संविधान की अवहेलना करते हैं तो अपना वह मन्तव्य प्रकट कर देते हैं जिसके आधार पर वे सत्ता को कब्जाना चाहते हैं।
रामनवमी पर आसनसोल में दंगे भड़का कर जिन लोगों ने भी इस शहर के भोले–भाले नागरिकों के जान- माल की लूट मचाई है उन्हें केवल राक्षसों की श्रेणी में ही डाला जा सकता है। ये वही राक्षस हैं जिनका समूल विनाश करके भगवान राम ने सत्य को प्रतिष्ठापित किया था और गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था ‘‘इक लख पूत सवा लख नाती–ता रावण घर दिया न बाती’’ मूल सवाल यह है कि रामनवमी की शोभायात्रा निकालने के नाम पर अस्त्र-शस्त्र से लैस होकर प्रदर्शन करना और किसी दूसरे धर्म के मानने वाले लोगों के लिए उत्तेजक शब्दों का प्रयोग करना क्या राम की मर्यादित व शालीन संस्कृति से मेल खाने वाली परंपरा है?
बंगाल तो उन चैतन्य महाप्रभु की भूमि है जिन्होंने मुस्लिम शासनकाल के दौरान श्री कृष्ण भजनामृत आन्दोलन चलाया था। उनके पीछे केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग भी चलने लगते थे। इतनी महान भूमि पर यदि कुछ लोग हिन्दू–मुसलमानों को आपस में भिड़ाने की तरकीबें भागवान राम के नाम पर ही करने लगें तो हमें मानना होगा कि एेसे लोगों का लक्ष्य भारत की एकता को तोड़ना है जिन्हें कानून के अनुसार सजा मिलनी चाहिए।
केन्द्रीय मन्त्री होकर अगर बाबुल सुप्रियो यह बयान देते हैं कि वह अपने समधर्मी लोगों को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों की ‘जिन्दा खड़े– खड़े खाल खिंचवा देंगे’ और पुलिस द्वारा लगाई गई धारा 144 को तोड़ कर हिन्दू समाज के लोगों को सम्बोधित करते हुए एेसा कहते हैं तो निश्चित रूप से एक क्षण के लिए भी वह मन्त्री पद पर नहीं रह सकते। इससे पहले भी वर्तामन सरकार के एक केन्द्रीय मन्त्री अनन्त हेगड़े ने सारे नियम–कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए कहा था कि उनकी पार्टी संविधान बदलने के लिए ही सत्ता पर बैठी है।
यह महाशय कर्नाटक से हैं। मगर एक और महारथी बिहार से हैं श्रीमान अश्विनी चौबे। जिनके सुपुत्र ने बिहार में रामनवमी के जुलूस के अवसर पर ही दंगे भड़काने का काम कर डाला और अब यह आग इस राज्य के कई जिलों में फैल रही है। अश्विनी चौबे भी केन्द्र सरकार में राज्यमन्त्री हैं। इन तीनों ‘हीरों’ को समेटे केन्द्र सरकार संविधान का पालन करने के हुक्म से बंधी हुई है और प. बंगाल व बिहार के मुख्यमन्त्री क्रमशः सुश्री ममता बनर्जी व नीतीश कुमार भी अपने–अपने राज्यों में एेसे ‘कालनेमियो’ का पर्दाफाश करने की कसम से बन्धे हुए हैं।
जहां तक ममता दीदी का सवाल है वह जमीन से उठ कर सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली एेसी जुझारू नेता हैं जो भारत की नारी शक्ति का पर्याय कही जा सकती हैं। उन पर उनके राजनीतिक विरोधी मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाते हैं मगर भूल जाते हैं कि 1947 में हिन्दू–मुसलमान के आधार पर ही बंगाल को विभाजित करके पूर्वी पाकिस्तान बना दिया गया था जिसे अब बंगलादेश के नाम से पुकारा जाता है और वहां का राष्ट्रीय गान वही है जो गुरुदेव रवीन्द नाथ टैगोर ने ‘आमार शोनार बांग्ला–’ लिखा था ममता दी इसी संस्कृति की ध्वज वाहक के रूप में पूरे देश में पहचानी जाती हैं।
यह व्यर्थ का बवंडर है कि कोई भी सरकार किसी सम्प्रदाय का तुष्टीकरण कर सकती है क्योंकि हमारा संविधान इसकी इजाजत ही नहीं देता है। अल्पसंख्यकों को जो भी अधिकार मिले हैं वे हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत गहन सोच–विचार के बाद इस देश की एकता को अक्षुण्य रखने के लिए ही दिये हैं। हां यह बेशक सत्य है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी जैसी पार्टियों ने इसका लाभ उठा कर नागरिकों को हिन्दू व मुसलमानों के बीच में बांटने में सफलता प्राप्त की और जवाब में हिन्दू साम्प्रदायीकरण के हिमायतियों की मदद की।
1937 में पं बंगाल में यही हुआ था जब हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने साम्प्रदायिक आधार पर ही लोगों को बांट कर सत्ता में भागीदारी की थी। अतः भगवान राम के नाम पर इस देश की एकता को खंडित करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। राम तो भारत के पहले एेसे जनयोद्धा थे जिन्हें विशुद्ध रूप से समाजवादी कहा जा सकता है क्योंकि बानरों व भालुओं की जन सेना इकट्ठी करके उन्होंने रावण जैसे महायोद्धा की स्वर्ण आभूषित सत्ता को जला कर राख कर दिया था। डा. लोहिया तो उन्हें पहले कम्युनिस्ट तक मानने को तैयार थे।
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