लोकसभा में आज पेश हुए आर्थिक सर्वेक्षण में देश की अर्थव्यवस्था का जो नक्शा निकला है वह इस मायने में उम्मीद जगाने वाला है कि सकल विकास वृद्धि दर के मोर्चे पर भारत तेजी से प्रगति करने वाले देशों के समूह की अगली पंक्ति में खड़ा हुआ है। चालू वित्त वर्ष, जो कि आर्थिक मोर्चे पर कई प्रकार की घटना–दुर्घटना व शोर-शराबे का गवाह रहा, अन्त में देश को स्थिरता की तरफ ले जाता दिखाई पड़ रहा है। नोटबन्दी से पूरे भारत में जो खलबली मची थी और जिसे अधकचरी सोच का परिणाम किसी सतमासे शिशु (प्री मेच्योर बेबी) की तरह समझा गया था, उसे भी भारत की अर्थव्यवस्था ने अपने आगोश में लेकर परिपक्व बना दिया है और पिछले साल 1 जुलाई से लागू वस्तु व सेवाकर (जीएसटी) के शुरूआती जख्मों से यह उबरने लगी है। सर्वेक्षण में नोटबन्दी से डिजीटल लेन-देन में हुई वृद्धि को एक सकारात्मक परिणाम माना है और जीएसटी को व्यापार सुगमता लाने वाला कदम माना है मगर यह स्वीकार किया है कि शुल्क वसूलने की प्रणाली में बदलाव के इस दौर में यह ध्यान देना होगा कि इसमें अपेक्षानुरूप ठहराव आये जिससे सरकारी राजस्व में वृद्धि का स्थिर सूचकांक विकसित हो सके। सर्वेक्षण का यह नतीजा भी है कि नोटबन्दी के बाद से घरेलू बचतों में बढ़ौत्तरी होने के संकेत मिल रहे हैं, परन्तु यह बढ़ौत्तरी लगातार जारी रहेगी।
नोटबन्दी की वजह से निजी आयकरदाताओं की संख्या में भी वृद्धि हुई है। जहां तक जीएसटी का सवाल है उससे भी राजस्व वसूली के मानकों के अनुसार भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पादन मूल्य का सही-सही आकलन करने में मदद मिलेगी मगर पैट्रोलियम व जमीन-जायदाद, बिजली तथा मदिरा उत्पादन के क्षेत्रों को जीएसटी के दायरे से बाहर रखकर एक दरवाजा तो खुला ही रहेगा। इसका असर हमारे संस्थागत विकास के स्रोतों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यह विचारणीय मुद्दा इसलिए है क्योंकि कोई भी सरकार राजस्व उगाही के अदलने-बदलने वाले (कैजुअल) स्रोतों के हिसाब से सकल विकास का खाका नहीं खींच सकती। इसके बावजूद सर्वेक्षण में जो तस्वीर उभरी है वह उम्मीद को जगाने वाली है और भारत के विकास को आगे बढ़ाने वाली है। यदि चालू वित्त वर्ष के अस्थिर माहौल में हमारी विकास वृद्धि दर 6.75 प्रतिशत के आसपास बैठती है तो हमारा अपने ऊपर भरोसा जागता है किन्तु यह भरोसा तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक कि भारत के निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले निवेश में वृद्धि को न दर्शाता हो। बेशक निर्यात के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव की आशा नजर आ रही है मगर यह निजी निवेश की प्रचुरता के बिना संभव नहीं हो सकती। एक मोर्चे पर सर्वेक्षण चेतावनी दे रहा है। यह मोर्चा कृषि क्षेत्र का है। दरअसल भारत का असली समावेशी विकास तभी संभव होगा जब ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी निर्माण या इसके सृजन में वृद्धि होगी। इसका सीधा सम्बन्ध स्थानीय स्तर पर ही रोजगार सृजन से भी है।
सर्वेक्षण रोजगार के बारे में यह ज्यादा नहीं बोल रहा है जो इस बात का प्रमाण है कि हम अपने युवा देश होने की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर रहे हैं। सेवा क्षेत्र में भारत को चीन, ब्राजील व फिलीपींस आदि से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है, इसके बावजूद इसमें इजाफे की तरफ रुझान बनना हमारी मौजूद शक्ति का परिचायक कहा जायेगा। सबसे ज्यादा चिन्ता हमें कृषि, ग्रामीण व रोजगार सृजन के मोर्चों पर होनी चाहिए। हमारे पास विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ा है और प्रत्यक्ष व परोक्ष विदेशी निवेश में भी वृद्धि हुई है। लोगों की नजरें वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश किए जाने वाले आम बजट की ओर लगी हुई हैं। देश की जनता को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। निश्चित रूप से वह देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए और जनता के हितों के लिए एक बेहतरीन बजट पेश करेंगे।