फिलीपींस में हुए आसियान देशों के सम्मेलन में इस बार अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उपस्थिति से इसका दायरा दक्षिणी अफ्रीका की सीमा को तोड़कर अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर बेशक पहुंच गया मगर असल विचारणीय मुद्दा इसी क्षेत्र के विकास व सुरक्षा का रहा। वस्तुतः दस देशों इंडोनेशिया, मलेशिया, कम्बोडिया, िवयतनाम, फिलीपींस,थाइलैंड, सिंगापुर, लाओस, म्यांमार, ब्रूनेई का यह संगठन हिन्द महासागर के घेरे में बसा हुआ है। अतः अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा इस क्षेत्र को एशिया प्रशान्त महासागर के स्थान पर हिन्द महासागर क्षेत्र कहने पर हमें बांस पर चढ़कर उछलना नहीं चाहिए। 80 के दशक तक इस पूरे क्षेत्र को हम हिन्द महासागर क्षेत्र ही कहते थे जिसका दूसरा छोर प्रशान्त सागर क्षेत्र से जाकर मिलता है आैर आस्ट्रेलिया को घेरता है। यह बेवजह नहीं था कि स्व. इन्दिरा गांधी हिन्द महासागर क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति क्षेत्र घोषित करने की मांग विभिन्न विश्व मंचों पर करती थीं क्योंकि1973-74 में जो दियेगो गार्शिया विवाद पैदा हुआ था उससे हिन्द महासागर क्षेत्र में सैनिक जमावड़े का अन्देशा पैदा होने लगा था। दियेगो गार्शिया को अमरीका अपना परमाणु सैनिक अड्डा बनाना चाहता था जिसका विरोध भारत ने पुरजोर तरीके से किया था।
80 के दशक के शुरू तक भारत अपनी मांग पर डटा रहा परन्तु इसके बाद अमरीका अपने इरादों में कामयाब हो गया। मनीला में समापन हुए आसियान के सम्मेलन को हमें हिन्द महासागर क्षेत्र की सुरक्षा के नजरिये से ही मूलतः देखना होगा क्योंकि अब परोक्ष रूप से इस क्षेत्र में चीन ने अपनी सामरिक शक्ति में इजाफा करने की जो रणनीति तैयार की है उससे समुद्र में शक्ति परीक्षण की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ भारत , जापान, आस्ट्रेलिया व अमरीका ने चतुष्कोणीय नौसैनिक सहयोग के रास्ते पर चलने का फैसला करके किसी भी चुनौती का सामना करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। बिना शक भारत के राष्ट्रीय हितों की नजर से यह फैसला स्वागत योग्य कहा जा सकता है परन्तु हिन्द महासागर के पहले से अशान्त जल में यह ज्वार–भाटों को और नहीं बढ़ायेगा इससे कैसे इंकार किया जा सकता है? आसियान संगठन के प्रमुख देशों के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को कभी नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल हमें यह समझना होगा कि भारत और अमरीका के हित कभी एक नहीं हो सकते। अमरीका पूरे पश्चिमी एशिया को अपने कब्जे में करने के लिए अरब सागर में पहले से ही अपने सैनिक जहाजी बेड़ों का जाल बिछाए बैठा है और चीन उसके इस लक्ष्य को अपनी सामरिक रणनीति से कभी पूरा नहीं होने देना चाहता अतः हिन्द महासागर में वह अपना प्रभुत्व लगातार बढ़ा रहा है और इसमें उसने अपने साथ पाकिस्तान व एक हद तक श्रीलंका को भी ले रखा है। इस रस्साकशी में भारत किसी भी प्रकार एक औजार नहीं बन सकता। हमारे राष्ट्रीय हित समस्त आसियान देशों के साथ पूर्ण शान्त वातावरण की शर्त पर ही बंधे हुए हैं। इसके साथ ही पश्चिम एशियाई अरब देशों के साथ भी हमारे आर्थिक सम्बन्ध बहुत गहरे हैं।
अतः हमें भावुक होकर अमरीकी ताकत के भरोसे होश गंवाने की जरा भी जरूरत नहीं है बल्कि यह सोचना है कि हिन्द महासागर को किस प्रकार विश्व शक्तियों का अखाड़ा बनने से रोका जाए। यह फिलीपींस के राष्ट्रपति रादिर्गो दुतेर्ते की दूरदर्शी स्पष्टवादिता थी कि उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि दक्षिण चीन सागर में चीन व अन्य आसियान देशों (िवयतनाम व फिलीपींस समेत) के बीच चल रहे विवाद पर वह मध्यस्थता करने को तैयार हैं। दूसरी तरफ चीन जिस वन बेल्ट वन रोड की वकालत कर रहा है उसका परोक्ष विरोध भी इस सम्मेलन में देखने को मिला। जापान व आस्ट्रेलिया इस मुद्दे पर भारत के साथ दिखाई पड़ते हैं लेकिन भारत को वह अपेक्षा पूरी करनी है जिससे चीन अपना विस्तारवादी और नव साम्राज्यवादी विचार त्याग कर शान्ति व सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़े। दूसरी तरफ चीन की भी जिम्मेदारी है कि वह अपनी शक्ति के दम्भ में हिन्द महासागर में प्रयोग करना छोड़ दे।
दक्षिण चीन सागर से भारत का वाणिज्य व्यापार रास्ता जाता है और चीन इसे अपनी बपौती नहीं मान सकता क्योकि यह वियतनाम को अपने तटों पर बसाये हुए है। प्रधानमन्त्री मोदी ने इस मोर्चे पर तब कुशल कूटनीतिक दांव चला था जब 2014 सितम्बर महीने में चीन के राष्ट्रपति भारत यात्रा पर आए थे तो भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी वियतनाम की यात्रा पर थे, वहां समुद्र में तेल खोज के कई अनुबन्ध किए गए थे। दरअसल बात फिर घूम फिर कर वहीं आती है कि समूचे हिन्द महासागर क्षेत्र को शान्ति क्षेत्र क्यों न अाधिकारिक रूप से स्वीकार करके चीन व अमरीका दोनों के ही मंसूबों पर पानी फेरा जाए? परन्तु अब यह इसलिए संभव नहीं दिखता क्योंिक 70 के दशक से अब तक दुनिया काफी बदल गई है। एकल ध्रुवीय दुनिया के देशों के हित आर्थिक भूमंडलीकरण ने बदल कर रख दिए हैं और चीन जैसा कम्युनिस्ट देश भी खुली आर्थिक व्यवस्था का पैरोकार बना हुआ है मगर इसके विपरीत क्या इसी व्यवस्था की सफलता की शर्त यह नहीं है कि सभी समुद्री रास्ते शान्त रहें और समुद्र की लहरों को बारूदी कचरे से दूर रखा जाए मगर आर्थिक विस्तारवाद क्या एेसा होने दे सकता है? मगर आशियान देश और कुछ नहीं हैं सिवाय आर्यावर्त के भू-भाग होने के। यही वजह है कि इन देशों की संस्कृति में रामायण अभिन्न हिस्सा बनी हुई है हालांकि इनमें से अधिसंख्य में बौद्ध संस्कृति का प्रादुर्भाव है। अब हम सोच सकते हैं कि स्व. इन्दिरा जी क्यों चाहती थीं कि हिन्द महासागर क्षेत्र शान्ति क्षेत्र घोषित हो।