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इंदिरा जी का ‘भारत-दर्शन’

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स्व. इंदिरा गांधी का राजनीतिक मूल्यांकन करना उनके एक सौ वें जन्म दिवस पर कठिन कार्य इसलिए है क्यों​िक उन्होंेने अपने शासनकाल के दौरान भारत का ‘स्वर्णकाल’ लिखने के साथ ही ‘इमरजेंसी’ का धब्बा भी दिया था लेकिन इसके बावजूद उनकी शख्सियत को भारत के लोगों ने सिर-माथे लगाकर उनकी भूल को क्षमा कर दिया था क्योंकि केवल दो वर्ष के छोटे से अन्तराल के दौरान ही इमरजैंसी के विरोध में जोड़ी गई और सत्ता पर काबिज हुई जनता पार्टी न केवल बिखर गई थी बल्कि उसके ‘इंदिरा विरोध’ का नशा भी काफूर हो गया था। इंदिरा जी को उनके जन्म दिवस पर हम सच्ची श्रद्धांजलि तभी दे सकते हैं जब उनकी इस उक्ति को याद रखें कि ‘भारत का विकास तभी होगा जब गरीब आदमी हर तरह से सशक्त होगा और गरीबी के विरुद्ध लड़ाई लड़ना किसी भी सरकार का प्राथमिक लक्ष्य होगा।’ वह देश की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री इसलिए बनीं क्योंकि उन्होंने भारत के गरीब और मुफलिस इंसान से शक्ति प्राप्त की।

लोकतन्त्र में इस ताकत का अहसास उन्हें तब हुआ जब उन्होंने अपनी ही पार्टी के मठाधीशों की दकियानूसी सोच के विरुद्ध विद्रोह करते हुए 1969 में निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और इसके बाद राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स का उन्मूलन किया। वस्तुतः यही वह समय था जब इं​दिरा गांधी का राजनीतिक पटल पर अपने बूते पर उदय हुआ मगर उनकी राह में कांटे कम नहीं थे। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी इस उभरती शख्सियत को चुनौती देने के लिए बाकायदा षड्यंत्र शुरू हुआ था क्योंकि उन्होंने भारत के विकास के लिए समाजवादी रास्ता चुना था। यह संयोग नहीं था कि पड़ोसी पाकिस्तान में भी तब फौजी शासक जनरल अयूब को हुक्मरानी छोड़ कर हुकूमत की कमान जनरल याह्या खान को देनी पड़ी थी और उसने पूरे पाकिस्तान में चुनाव कराने का वादा किया था। दिसम्बर 1970 में पाकिस्तान में हुए चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान ( अब बंगलादेश ) के नेता शेख मुजीबुर्रहमान की नेशनल अवामी पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था मगर याह्या खान ने शेख साहब को सत्ता नहीं सौंपी और जनवरी 1971 में श्रीनगर से जम्मू जा रहे इंडियन एयर लाइंस के विमान का अपहरण कराकर लाहौर ले जाकर फुंकवा दिया। यह काम तब दो कश्मीरी युवकों से ही काराया गया था जिनका स्वागत लाहौर हवाई अड्डे पर पाकिस्तान के तब के विदेशमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने नायकों की तरह किया था।

भारत भी उस समय चुनावों की मुद्रा में था क्योंकि इन्दिरा जी ने समय से पहले ही लोकसभा भंग करके नये चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी। पाकिस्तान की इस चाल का जवाब इं​दिरा जी ने जिस तरह दिया उसकी कल्पना आज के राजनीतिज्ञों के लिए करना कठिन काम है। बिना किसी शोर–शराबे आैर प्रचार के उन्होंने पाकिस्तान के सभी तरह के विमानों के भारत के ऊपर से होकर पूर्वी से पश्चिमी पाकिस्तान आने –जाने पर रोक लगा दी। उन्होंने उस समय किसी अन्तर्राष्ट्रीय उड़ान नियम की परवाह नहीं की। पाकिस्तान इसके खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय चला गया। इंदिरा जी अपने फैसले पर दृढ़ रहीं। पाकिस्तान को इंदिरा जी ने इसके बाद जिस तरह घेरा उसका परिणाम बंगलादेश का उदय रहा। पाकिस्तान को बीच से चीर कर उन्होने दो टुकड़ों में बांट डाला। उसी जुल्फिकार अली भुट्टो से शिमला में 1972 में उस समझौते पर दस्तखत कराये जिसमें कश्मीर मसले को आपसी बातचीत से ही सुलझाये जाने का अहद किया गया था, जिसने एक साल पहले ही भारत का विमान जलाने वाले युवकों का लाहौर में स्वागत किया था। यह लम्बी कहानी मैंने कम से कम शब्दों में लिखने का प्रयास इसलिए किया है जिससे नई पीढ़ी के पाठक जान सकें कि इंदिरा गांधी किस मिट्टी की बनी हुई थीं। यही भारत का वह स्वर्णकाल था जब एशिया समेत पूरे यूरोप में इंदिरा गांधी के नाम का डंका बजता था क्योकि उन्होंने पूरे दक्षिण एशिया की राजनीति को बदल कर रख दिया था। यही वजह थी कि उन्होंने जब 1972 के करीब सिक्किम का भारतीय संघ में विलय किया तो दुनिया के देश भारत का समर्थन करते रहे।

चीन जैसा देश भी चुपचाप देखता रहा मगर इंदिरा जी यहीं चुप नहीं बैठीं और उन्होंने 1974 में पोखरण में पहला परमाणु विस्फोट करके भारत को परमाणु शक्ति बना दिया और इसके साथ ही कश्मीर समस्या के अन्त के लिए स्व. शेख अब्दुल्ला से समझौता करके तय किया कि इस राज्य की आने वाली पीढि़यां अलगाववाद से हमेशा दूर रहें मगर इंदिरा गांधी का इतना वटवृक्षी कद हमेशा पश्चिमी देशों की नजर में खटकता रहा। इसके साथ ही इंदिरा जी भी थोड़ी गफलत में आ गईं और उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस में आन्तरिक लोकतन्त्र को जरा भी तरजीह देना उचित नहीं समझा। उनके बारे में तब राजनीतिक क्षेत्रों में यह चटखारे लेकर कहा जाता था कि ‘‘इंदिरा गांधी जमीन पर कोई पौधा रोपती हैं और जब वह बड़ा होकर हरा-भरा होने लगता है तो उसे उखाड़ कर गमले में रोप देती हैं और अपने आवास में रख देती हैं।’’

कांग्रेस में यह संस्कृति अन्ततः पार्टी को उनके निधन के बाद काफी महंगी भी पड़ी मगर वह भारत के लोगों के उत्थान के लिए किस हद तक समर्पित थीं इसका अन्दाजा इस हकीकत से लगाया जा सकता है कि 1977 के लोकसभा चुनावों में केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार आई और इसकी कमान स्व. मोरारजी देसाई के हाथों में गई तो पाकिस्तान में पुनः सैनिक शासन आने पर वहां के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को जेल में डाल कर फांसी की सजा दे दी गई। तब के पाकिस्तान के फौजी शासक जनरल जिया-उल-हक ने मोरारजी देसाई को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान ‘निशाने पाकिस्तान’ देने का एेलान बाद के वर्षों में क्यों किया? मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के बारे में भारत की नीतियों में क्या बदलाव किया था और उन्होंने पाकिस्तान के लिए एेसा क्या कार्य किया था कि उन्हें एक राजनीतिज्ञ होते हुए भी निशाने पाकिस्तान से नवाजा गया जबकि उनकी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी दोनों जनसंघ के प्रतिनि​िध होने के नाते मन्त्री थे और अटल जी तो विदेशमन्त्री थे। इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने का क्या यह कोई परिणाम था? जबकि जनरल जिया तो पाकिस्तानी फौज में दहशतगर्दों की भर्ती करने वाला पहला फौजी शासक था और उसी ने यह सिद्धांत बनाया था कि ‘भारत से सीधी लड़ाई लड़ने की जगह उसे हजार जख्म दो’ जिससे वह कराहता रहे! अतः कुछ खामियों के बावजूद इंदिरा गांधी ‘इंदिरा प्रियदर्शनी’ ही रहेंगी।

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