आज सारी विश्व मानवता इतिहास के उस चौराहे पर खड़ी है, जहां वह उपलब्धियां जो मानव ने सदियों की मेहनत से प्राप्त की हैं, केवल वही परमाणु विनाश से समाप्त नहीं हो जाएंगी अपितु सारी मानवता का भविष्य आज खतरे में पड़ गया है और मनुुष्य मात्र के चिन्तित होने की संभावनाएं भी काफी बढ़ गई हैं। इस परमाणु युग में सारी मानवता को मिलकर यह फैसला करना होगा कि उसे भविष्य में क्या करना है। कभी हम उत्तर कोरिया के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम से आतंकित होते हैं तो कभी ईरान के परमाणु कार्यक्रम से भयभीत होते हैं। पूरे विश्व को डर सता रहा है कि कहीं परमाणु हथियार आतंकी संगठनों के पास न चले जाएं। विश्व की 5 बड़ी शक्तियां इस पर बहस तो बहुत करती रही हैं लेकिन परमाणु प्रसार को रोकने के लिए उसे कोई अधिक सफलता नहीं मिली।
एक तरफ परमाणु कार्यक्रमों की तादाद बढ़ती चली गई तो दूसरी तरफ संधियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। सांप और सीढ़ी का खेल तब भी चल रहा था और आज भी चल रहा है। निरस्त्रीकरण की दिशा में जितनी संधियां हुईं, उतनी आैर किसी भी दिशा में नहीं हुईं लेकिन न अमेरिका ईमानदार रहा, न रूस और न चीन।
परमाणु मुक्त विश्व का सपना अधूरा ही रहा। अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया है। ट्रंप पहले ही बराक ओबामा के कार्यकाल में किए गए इस समझौते को अप्रासंगिक और बेकार करार देते आ रहे हैं। ट्रंप ने घोषणा कर दी है कि वर्ष 2015 में ईरान के साथ समझौते के बाद आर्थिक प्रतिबंधों में जो रियायतें दी गई थीं, उन्हें दोबारा लागू करेंगे।
हालांकि यूरोपीय देश इस समझौते को तोड़ने के खिलाफ थे और कुछ सैन्य सलाहकारों ने भी ट्रंप को समझौता न तोड़ने की सलाह दी थी लेकिन ट्रंप ने समझौता तोड़ दिया। ट्रंप का आरोप है कि ईरान से किया गया समझौता उसकी परमाणु गतिविधियों पर एक नियत समय के लिए रोक लगाता है और यह मिसाइलों के विकास को रोकने में नाकाम रहा है। साथ ही ईरान को समझौते के बाद 100 अरब डॉलर मिल गए जिसका इस्तेमाल उसने हथियार हासिल करने, कट्टरपंथ को बढ़ावा देने और मध्य पूर्व एशिया में दमन के लिए किया।
इस्राइल ने अमेरिका के इस फैसले का समर्थन किया है जबकि फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने ईरान के साथ परमाणु समझौता तोड़ने के अमेरिका के फैसले पर अफसोस जाहिर किया है। इन देशों ने कहा है कि वह ईरान के साथ इससे जुड़े विषयाें और मध्य पूर्व में स्थिरता सम्बन्धी बातचीत करेंगे। जुलाई 2015 में ओबामा प्रशासन ने इस समझौते के तहत ईरान पर हथियार खरीदने पर 5 साल का प्रतिबंध लगाया था, साथ ही मिसाइल प्रतिबंधों की समय-सीमा 8 साल तय की थी।
बदले में ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का बड़ा हिस्सा बन्द कर दिया था और बचे हुए हिस्से की निगरानी अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षकों से कराने पर राजी हो गया था। उधर ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा है कि परमाणु समझौता खत्म करने पर अमेरिका को पछताना पड़ेगा। उन्होंने ईरान के आणविक ऊर्जा संगठन को आदेश दे दिया है कि यूरेनियम के औद्योगिक स्तर पर संवर्धन का काम शुरू करे, जो कि परमाणु ऊर्जा और हथियार दोनों के लिए जरूरी है। अमेरिका के फैसले से परमाणु अप्रसार के भविष्य पर भी सवालिया निशान लग गए हैं।
कुछ वर्ष पहले दुनिया के सामने जो चुनौतियां थीं, ट्रंप के इस कदम ने वहीं पहुंचा दिया। अब डोनाल्ड ट्रंप ईरान पर फिर से आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे। इसमें ईरान के केन्द्रीय बैंक के साथ लेन-देन बन्द करना हो सकता है, जिसका मकसद दुनियाभर की तेल कम्पनियों पर ईरान से पैट्रोल-डीजल नहीं खरीदने के लिए दबाव बनाना होगा। इससे फिर उथल-पुथल ही मचेगी। हसन रूहानी बार-बार कह चुके हैं कि उनका परमाणु कार्यक्रम सैन्य उद्देश्यों के लिए नहीं है लेकिन अमेरिका उस पर विश्वास नहीं कर रहा।
इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कुछ दिन पहले म्यूनिख में आयोजित सुरक्षा सम्मेलन में ईरान को दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उन्होंने ईरान के 15 साल पुराने परमाणु हथियार कार्यक्रम से जुड़े दस्तावेजों को सनसनीखेज बनाकर पेश किया है। सवाल यह भी है कि बेंजामिन पुराने दस्तावेजों को लेकर ड्रामेबाजी क्यों कर रहे हैं। बेंजामिन ने ऐसा करके ट्रंप को प्रभावित किया है। यूरोपीय देश इस मामले में ट्रंप के साथ नहीं हैं। जर्मनी का कहना है कि ईरान के मुद्दे पर अमेरिका का व्यवहार हम यूरोपीय लोगों को रूस और चीन के अमेरिका विरोधी रुख के करीब ले जाएगा।
यूरोपीय देशों का कहना है कि ट्रंप समझौता तोड़ने की जो वजह बता रहे हैं, उसका कोई मजबूत आधार नहीं है। ट्रंप का कहना है कि ईरान गैर-बैलेस्टिक मिसाइल का निर्माण कर रहा है, साथ ही वह सीरिया, यमन और इराक में शिया लड़ाकों और हिज्बुल्ला जैसे संगठनों को लगातार हथियार सप्लाई कर रहा है। यूरोपीय देशों का यह भी कहना है कि डोनाल्ड ट्रंप की आंतरिक राजनीति का खामियाजा वह क्यों भुगतें ?
अमेरिका 2015 में सीरिया में मिली हार को अब तक पचा नहीं पाया। वह ईरान को भी इराक बना देना चाहता है। अब ईरान आैर परमाणु गतिविधियां बढ़ाएगा और मिसाइल परीक्षण भी करेगा। सवाल यह है कि ट्रंप के ईरान के साथ समझौता तोड़ने के बाद उत्तर कोरिया क्या बातचीत की मेज पर आएगा ? अाैर वह क्यों किसी तरह के समझौते पर हस्ताक्षर करेगा। ट्रंप के कदमों से अमेरिका की वैश्विक पंच की भूमिका कमजोर हुई है।