आजादी के 70 साल बाद भी यदि हम मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के नाम पर अपने हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को तबाही के कगार पर डालने की गलती करते हैं तो निश्चित रूप से हमने इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा है और पुनः वे ही शक्तियां हमारे भारत को कमजोर बनाना चाहती हैं जिन्होंने कभी अंग्रेजों की मदद करते हुए इस देश को दो टुकड़ों में बांट दिया था।
जिन्ना बेशक इतिहास का हिस्सा हैं और उन्हें इसके दस्तावेजों से मिटाया नहीं जा सकता है मगर जो मिटाया जा सकता है वह उनकी वह मानसिकता है जिसने मजहब के नाम पर 1947 में भारत में कत्लोगारत का बाजार गर्म किया था। मगर अफसोस यह है कि आजाद हिन्दोस्तान में हम उस अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की टंगी हुई तस्वीर पर साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं जिसका निर्माण ही ब्रिटिश भारत में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों में शिक्षा की रोशनी बिखेरने के लिए सर सैय्यद अहमद खां ने किया था। सबसे पहले यह बात समझी जानी चाहिए कि जिन्ना मुसलमानों के हितचिन्तक नहीं थे। उनके लिए ब्रिटिश हुकूमत के हित ज्यादा मायने रखते थे।
ठीक यही स्थिति हिन्दू महासभा की भी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने आखिरी दम तक कोशिश की कि गांधी और नेहरू के भारत के लोगों को इस तरह आपस में बांट दिया जाये कि आजादी मिलने पर हिन्दोस्तान एक दकियानूस सपेरों और बाजीगरों का मुल्क ही बना रहे और इसके लोग खेती पर ही निर्भर रहें। इसके लिए अंग्रेजों ने जो व्यूह रचना की थी वह भारत को पीछे की तरफ ले जाने की थी।
बड़ी ही चालाकी के साथ अंग्रेजों ने भारत को आजादी देते समय दो स्वतन्त्र देशों (डोमीनियन स्टेट) भारत और पाकिस्तान में बांटा और इसके 746 से ज्यादा देशी राजे-रजवाड़ों को सत्ता वापस कर दी। इनमें से 556 के लगभग रियासतें भारत की निर्धारित सीमा में आ गईं। इसके साथ ही अंग्रेजों ने इन्हें छूट दे दी कि वे चाहें तो स्वयं की स्वतन्त्र सत्ता बनाये रख सकती हैं।
जम्मू-कश्मीर की हम जो आज समस्या देख रहे हैं वह मूल रूप से अंग्रेजों की इसी नीति की उपज है मगर अंग्रेजों ने यह कार्य पूरे योजनाबद्ध तरीके से किया और ब्रिटिश भारत में मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा को दो अलग-अलग देशों के वकील के तौर पर खड़ा किया तथा पुरानी रियासतों के नवाबों व महाराजाओं का इन दोनों पार्टियों को खुला समर्थन मिला,
जिससे कांग्रेस पार्टी का स्वतन्त्रता आन्दोलन अपने ही विरोधाभासों और अन्तर्कलह का शिकार होकर साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों में भस्म हो जाये मगर महात्मा गांधी के विशाल व्यक्तित्व के रहते यह संभव नहीं हुआ लेकिन अंग्रेजों ने जिन्ना को इस बात के लिए तैयार कर लिया था कि वे भारत को पं. मोती लाल नेहरू द्वारा दिये गये उस संवैधानिक प्रारूप का अंग नहीं मानेंगे जिसमें उन्होंने अखंड भारत को विभिन्न प्रदेशों और क्षेत्रों का एक ‘संघीय राज्य’ कहा था और 1935 में इसी संविधान के अनुसार ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव कराये गये थे।
अंग्रेज सरकार ने 1934 में ‘भारत सरकार कानून’ इसी के अनुरूप बनाया था और समूचे भारत को एक संघीय राज्य की संज्ञा दी थी परन्तु जब 1945 में पुनः प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव कराये गये तो तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल ने घोषणा की कि ये चुनाव ‘भारत सरकार कानून-1919’ के तहत कराये गये हैं जिनमें अंग्रेजों ने भारत को विभिन्न जातियों, संस्कृतियों व नस्लों का समुच्च या जमावड़ा माना था।
इसी कानून के तहत भारत को दो देशों में बांटने का रास्ता निकलता था। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 1917 में ही हिन्दू महासभा के वीर सावरकर ने हिन्दू-मुस्लिम आधार पर संयुक्त भारत में द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त दे दिया था और कहा था कि हिन्दू व मुसलमान एक राष्ट्र का हिस्सा नहीं हो सकते। इन दोनों के लिए अलग-अलग देश होने चाहिएं। यह प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति का दौर था और इसके बाद 1919 में अंग्रेजों ने श्रीलंका को भारत से अलग कर दिया था। भारत से काट कर एक देश पहले ही अलग किया जा चुका था। इसके बाद 1935 में द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भकाल में ही अंग्रेजों ने बर्मा (म्यांमार) को भारत से अलग कर डाला।
अब बचे-खुचे हिन्दोस्तान की बारी थी। इस दौरान हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों की भारी मदद की और जब विश्व युद्ध की विभीषिका ज्वलन्त हो रही थी और 1942 में महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ाे’ का आह्वान किया और भारतीयों से अंग्रेजी फौज में भर्ती न होने की अपील की तो इन दोनों पार्टियों ने हिन्दू और मुसलमानों से ज्यादा से ज्यादा संख्या में फौज में भर्ती होने का अभियान चलाया जिससे विश्व युद्ध में अंग्रेजों की मदद हो सके। दरअसल जिन्ना को तभी पाकिस्तान के तामीर होने का पक्का यकीन हो गया था मगर उन्हें यह विश्वास नहीं था कि इसके लिए भारत के लोग महात्मा गांधी के नेतृत्व के चलते राजी हो सकते हैं।
यह बेवजह नहीं था कि जब भारत को एक रखने के कांग्रेस के अन्तिम प्रयास के रूप में ब्रिटिश संसद भारत में ‘केबिनेट मिशन’ भेजने के लिए तैयार हुई तो पं. नेहरू की कार्यकारी सदारत के रूप में बनी ‘अधिशासी परिषद’ में जिन्ना शामिल नहीं हुए और उन्होंने मुस्लिम लीग के नुमाइन्दे के तौर पर लियाकत अली खां को भेजा जिन्होंने वित्त विभाग लेकर हिन्दू और मुसलमानों के लिए पृथक बजटीय प्रावधान करने शुरू कर दिये।
अप्रैल 1946 में केबिनेट मिशन के लागू होने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान के ख्वाब को पूरा करने के लिए पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की मुिहम शुरू की और बाद मे ‘डायरेक्ट एक्शन’ का कौल देकर केबिनेट मिशन को लार्ड वावेल के साथ बनी समझ से फेल कर दिया और अंग्रेजी संसद के लिए भारत को बांटने का प्रस्ताव पारित करने की मोहलत दे दी।
इस पुख्ता इतिहास के चलते भी अगर हम जिन्ना की तस्वीर को लेकर आपस में झगड़ते हैं तो हमसे बड़ा मूर्ख कोई और नहीं हो सकता। इसका मतलब यही निकलता है कि हम आज भी अंग्रेजों की चाल का शिकार बने हुए हैं। जिन्ना को प्रासंगिक बनाये रखने की राजनीति दोनों ही तरफ के कट्टरपंथियों का घिनाैना षड्यन्त्र है, इसके अलावा कुछ नहीं। पाकिस्तान में लाहौर के उस स्थान को भगत सिंह चौक का नाम दिये जाने का विरोध भी वहां के कट्टरपंथी करते हैं जहां उन्हें फांसी दी गई थी।