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कठुआ की निर्भया को न्याय दो

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पूरे देश के सामाजिक वातावरण में किस तरह जहर घुला है कि जम्मू-कश्मीर के कठुआ इलाके के एक गांव रसना की आठ वर्षीय गूर्जर (बकरवाल) कन्या के साथ कुछ लोगों ने एक देवस्थान में उसे बन्दी व बेहोश करके बलात्कार किया और बाद में उसकी हत्या करके जंगल में फैंक दिया। इंसानियत के माथे पर कलंक लगाने वाले इन नरपिशाचों को हिन्दोस्तान के कौन से धर्म में मानव नाम से जाना जा सकता है?

उस कन्या का दोष केवल इतना था कि वह मुसलमान माता–पिता के घर में पैदा हुई थी। राजधानी दिल्ली से बहुत दूर अपनी हसीन वादियों और खुशनुमा फिजाओं के लिए पूरी दुनिया में मशहूर जम्मू-कश्मीर को केवल आतंकवादी ही खून से बदरंग नहीं कर रहे हैं बल्कि वे लोग भी इसके वातावरण को रक्त रंजित बनाने की साजिशें रच रहे हैं जो खुद को हिन्दुत्व का अलम्बरदार बताते हैं। लानत है इस सूबे की एेसी सरकार पर जो जनवरी महीने में हुए एेसे घृणित कांड के मुजरिमों को अभी तक सींखचों के पीछे नहीं डाल सकी है।

हिन्दोस्तानियत की तौहीन करने वाले एेसे लोगों की हिमायत में अगर कठुआ के वकील आगे आकर उनके खिलाफ अदालत में चार्जशीट दायर नहीं करने देते हैं और पूरे मसले को साम्प्रदायिक रंग में रंगने की कोशिश करते हैं तो जम्मू-कश्मीर बार एसोसियेशन को इनकी सदस्यता खत्म करके इन्हें वकालत करने से महरूम करने में जरा भी देर नहीं लगानी चाहिए। यह सवाल न किसी पार्टी का है और न किसी मजहब का बल्कि इंसानियत का है और किसी भी देवस्थान को बलात्कार स्थल बनाकर उसे कत्लगाह बनाने वाले के खिलाफ कानून किसी सूरत में चुप नहीं बैठ सकता।

इसलिए जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर राज्य का उच्च न्यायालय इस मामले का संज्ञान खुद लेते हुए बाकायदा मुजरिमों के खिलाफ आगे कार्रवाई करने का हुक्म जारी करते हुए उन वकीलों के खिलाफ फौजदारी मामलों में सख्त कार्रवाई करने का रास्ता निकाले जिन्होंने कानून को अपना काम करने से रोका है। हैवानियत की हद तो देखिये कि एक आठ साल की बच्ची के जिस्म के साथ दरिन्दगी की सारी हदें इस तरह तोड़ी गईं जिस तरह जंगली जानवर भेडि़या किसी शिकार के साथ करता है।

उस बच्ची को कई दिन तक नशीली दवाएं दे-देकर उसके साथ बलात्कार किया गया और जब वह मरने के कगार पर पहुंच गई तो किसी और ने नहीं बल्कि एक पुलिस के कारिन्दे ने उसके साथ आखिरी बार बलात्कार करने की अपनी शौतानी हवस पूरी की ! सवाल उठना लाजिमी है कि हम किस मुकाम पर पहुंच गए हैं कि एक आठ साल की बच्ची को अपनी कोढ़ग्रस्त राजनीति का शिकार बनाने के लिए मानसिक रूप से जंगली जानवर हो गए हैं। कठुआ का मामला तो दिसम्बर 2012 में राजधानी में हुए निर्भया कांड से भी ज्यादा वीभत्स और जघन्य है! यह इस बात का पक्का सबूत है कि हमने लोकतन्त्र में जंगल के कानून को ही अपना मजहब मानना शुरू कर दिया है।

जम्मू-कश्मीर की अपराध शाखा ने इस कांड मेें जो चार्जशीट दायर की है, जिसका चालान कठुआ के वकीलों ने नहीं भरने दिया, उसमें कुल आठ लोगों को मुल्जिम दिखाया गया है जिनमें एक पुलिस का सब-इंस्पैक्टर और एक रिटायर्ड राजस्व अधिकारी के साथ अल्प वयस्क युवक भी है। इन सभी ने जिस तरह भेड़-बकरियां या घरेलू घोड़े आदि जानवर चराकर अपने परिवार की मदद करने वाली आठ वर्षीय बच्ची के साथ इन दरिन्दों ने बर्ताव किया उससे तो शैतानों तक की रूह कांप जाए मगर देखिये स्थानीय पुलिस के एक कर्मचारी को मालूम था कि लड़की को कहां रखा गया है और उसके साथ कौन-कौन लोग बलात्कार कर रहे हैं मगर अपराधियों ने उसे डेढ़ लाख रु. की रिश्वत देकर मामले का रुख मोड़ने की कोशिश की।

10 जनवरी को बच्ची अपने घोड़े चराते हुए गुम हुई थी और उसके सात दिन बाद उसकी लाश जंगल में मिली। पुलिस और आरोपी मिलकर बच्ची के पिता को बहकाते रहे मगर बाद में जब उसकी लाश मिली तो तफतीश को स्थानीय पुलिस ने घुमाना चाहा जिसके बाद बकरवाल आन्दोलन खड़ा होने पर जांच का काम अपराध शाखा को दिया गया। हद तो देखिये कि बच्ची के साथ हवस पूरी करने के लिए एक अपराघी ने दूसरे अपराधी को मेरठ से खासतौर पर बुलाया। हिन्दोस्तान के लोग आज पूछ रहे हैं कि गरीबों की सरकार की कैफियत का खुलासा करो कि हुकूमत के किस कोने में उसका नुमाइन्दा बैठा हुआ है?

जम्मू-कश्मीर का बकरवाल अगर गरीब नहीं है और उसकी बेटी की इज्जत कोई मायने नहीं रखती है तो यह बताओ कि किसकी बेटियां इस मुल्क में महफूज हैं? सूबे की मुख्यमन्त्री महबूबा मुफ्ती और उप मुख्यमन्त्री निर्मल सिंह बतायें कि उनका निजाम किस हलके में बावकार चल रहा है? 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण की पहली सूचना देने वाले बकरवालों की बिरादरी पूछ रही है कि उन्हें इस मुल्क के अकीदतमन्दों ने किस खांचे में डाला हुआ है?

एक गूर्जर (बकरवाल) की बेटी आसमान में बैठी पूछ रही है कि मेरी अजमत का तमाशा बनाने वालो यह बताओ कि तुम्हें सबसे महफूज जगह देवस्थान ही क्यों मिली? गरीबों की आंख से निकलने वाले आंसुओं पर सियासत के तम्बू गाड़ने वालो यह बताओ कि तुम्हारी आंखों का पानी किस ‘समन्दर’ में जाकर बह गया है? मगर बकरवालों की मदद तब कौन करेगा जब महबूबा सरकार के दो मन्त्री लालसिंह और चन्द्रप्रकाश गंगा उनकी न्याय की मांग के खिलाफ कठुआ में एेसा मंच बनाने के पीछे खड़े हों जिसने आठ साल की बच्ची को किसी आदमी की औलाद न मानकर एक मुसलमान की बेटी माना हो और इसके आधार पर साम्प्रदायिक गोलबन्दी शुरू कर दी हो।

अक्ल के बादशाहो किसी बकरवाल की बेटी के अरमान आठ साल की उम्र में वे ही होते हैं जो किसी मन्त्री की बेटी के होते हैं। इसलिए सवाल कांग्रेस या भाजपा अथवा पीडीपी या नेशनल कांफ्रैंस का नहीं है बल्कि एक आठ साल की बच्ची का है और उसका मजहब वही था जो उसके मां-बाप का है। इसलिए हिन्दू एकता मंच का गठन करके इस जघन्य कांड को धर्म के लबादे में जो लोग दबाना चाहते हैं वे अपने धर्म के मानने वाले भी कैसे हो सकते हैं, क्योंकि दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान तुलसी दया न छोड़िये जब लख घट में प्राण

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