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जस्टिस कर्णन को जेल भेजना ही सही

देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि शीर्ष अदालत ने न्यायिक प्रक्रिया और पूरी न्याय व्यवस्था की अवमानना का दोषी मानते हुए किसी हाईकोर्ट के जज

देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि शीर्ष अदालत ने न्यायिक प्रक्रिया और पूरी न्याय व्यवस्था की अवमानना का दोषी मानते हुए किसी हाईकोर्ट के जज को 6 माह की सजा सुनाई है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जे.एस. खेहर और सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों के खिलाफ विद्रोही तेवर अपनाने वाले कोलकाता हाईकोर्ट के जस्टिस सी.एस. कर्णन को जेल भेजने के आदेश दे दिए गए हैं। अगर कानून के रक्षक न्यायाधीश ही कानून को भंग करेंगे तो फिर कानून मानेगा कौन? इस बार सुप्रीम कोर्ट का सामना किसी आम आदमी से नहीं था, वह भी अपने ही सदस्य से था। सवाल सामने था कि अगर जस्टिस कर्णन को जेल भेजा जाता है तो न्यायपालिका पर एक पदासीन न्यायाधीश को जेल भेजने का कलंक लगेगा साथ ही सवाल यह भी था कि अगर जस्टिस कर्णन को जेल नहीं भेजा जाता तो यह कलंक लगता कि सुप्रीम कोर्ट ने एक जज को अवमानना मामले में माफ कर दिया। सवाल न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिष्ठा का था। अगर न्यायपालिका से इस देश के लोगों का विश्वास उठ गया तो फिर क्या प्रजातंत्र बच सकेगा? इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिपरीक्षा से निकल कर सही फैसला किया है। सभ्यता और शिष्टता न्यायविहीन समाज में जीवित नहीं रह सकते। न्याय की परिकल्पना को मूर्त रूप देना शासन का कत्र्तव्य है और शासन को अपने आधारभूत कत्र्तव्य का स्मरण दिलाते रहना बल्कि उसे अपने कत्र्तव्य पालन के लिए विवश करते रहने का दायित्व भारतीय संविधान ने न्यायपालिका को सौंपा है। प्रत्येक न्यायाधीश को अपने कार्य के सम्पादन और उत्तरदायित्व का निर्वहन करना चाहिए लेकिन जस्टिस कर्णन ने न्यायपालिका की गरिमा पर जबर्दस्त चोट की। उन्होंने तो शिष्टाचार को किनारे कर सभी सीमाएं लांघते हुए अपने घर में अदालत लगाकर भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. खेहर और सुप्रीम कोर्ट के 7 अन्य जजों को 5-5 वर्ष कठोर कारावास की सजा सुना दी और जुर्माना भी लगाया। देश के इतिहास में यह पहला मौका है जब सुप्रीम कोर्ट के जजों को निचली अदालत के किसी न्यायाधीश ने सजा सुनाई है। जस्टिस कर्णन ने यह सजा 1989 के एससी-एसटी एक्ट और 2015 में इसी कानून में संशोधन के प्रावधानों के उल्लंघन के आरोप में सुनाई। जस्टिस कर्णन के मुताबिक जस्टिस भानुमति ने जस्टिस खेहर से मिलकर उन्हें न्यायिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियां पूरी करने से रोका। देश की न्यायपालिका के इतिहास में यह हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है कि एक हाईकोर्ट का जज शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों को सजा सुना दे। जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच पिछले कुछ समय से विवाद चल रहा है। इससे ही उनकी मानसिक हालत का अनुमान लगाया जा सकता है। जब वे मद्रास हाईकोर्ट में थे तो उन्होंने अपने साथी जजों के विरुद्ध आदेश जारी कर दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर भ्रष्ट जजों की एक सूची भी भेजी थी। उन्हें सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि मद्रास हाईकोर्ट के कई जज भ्रष्ट हैं। उन्होंने न्यायपालिका में चल रहे छोटे-मोटे भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक अभियान सा छेड़ रखा था। तब सर्वोच्च न्यायालय की 7 जजों की पीठ ने इसे न्यायपालिका का अपमान माना और उन्हें 13 फरवरी को कोर्ट में पेश होने का आदेश दिया।
जब सुप्रीम कोर्ट ने उनके द्वारा दिए जा रहे फैसलों पर रोक लगा दी तो उन्होंने इस आदेश को अनैतिक साबित करने के लिए बहुत ही कमजोर तर्क का सहारा लिया। उनका कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय के यह सभी जज ऊंची जातियों के हैं, इसलिए वे हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए हैं। ऐसा तर्क देकर कर्णन ने अपनी लड़ाई को काफी कमजोर कर लिया था। यह सब कर जस्टिस कर्णन ने अपनी स्थिति काफी हास्यास्पद बना ली थी। भारत ही नहीं दुनिया भर में न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रहती हैं लेकिन उनसे लडऩे का जो तरीका कर्णन ने अपनाया, वह गलत रहा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩा अच्छी बात है, बड़े साहस का काम है लेकिन यह जरूरी नहीं कि अच्छे और साहसिक कार्य के लिए व्यक्ति अपनी गरिमा और मर्यादा को ताक पर रख दे।
जस्टिस कर्णन ने जिस तरह से मर्यादाओं को ताक पर रखा, उसे देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने उनके मानसिक स्वास्थ्य की जांच के आदेश दिए थे लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर मेडिकल टीम को लौटा दिया था। उन्होंने शीर्ष न्यायालय के 7 न्यायाधीशों को आतंकवादी और उनके आदेश को एक दलित न्यायाधीश का अपमान करार दिया था। क्या जस्टिस कर्णन ने ऐसा करके नैतिकता का कोई उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया था? क्या उन्होंने न्यायपालिका के उच्च मानदंडों का पालन किया, जो उनसे अपेक्षित था? क्या उनके आचरण, व्यवहार और वाणी ने आदर्शों का पालन किया? क्या उन्होंने संविधान का अपमान नहीं किया? स्पष्ट है कि इस सबका उत्तर ‘न’ में है तो फिर उनको जेल भेजा जाना ही सही है। मैं पहले भी लिखता रहा हूं कि न्यायाधीश पर महाभियोग की कार्रवाई ही उन्हें हटाने का कारगर उपाय नहीं है। न्यायपालिका को ऐसे लोगों से छुटकारा पाने के लिए कोई और रास्ता अपनाना होगा।

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