गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने राय व्यक्त की है कि कश्मीर समस्या का स्थायी हल जल्दी ही निकलेगा और पाकिस्तान इस राज्य में अलगाववादी तत्वों को शह देने से बाज आयेगा। दरअसल गृहमन्त्री ने एक प्रकार से चेतावनी भी दी है कि पाकिस्तान को एक शरीफ पड़ोसी की तरह पेश आना चाहिए और भारत के अन्दरूनी मामले में टांग नहीं अड़ानी चाहिए। कश्मीर में आजकल जो भी हो रहा है वह निश्चित तौर पर भारत का अन्दरूनी मामला है। इस राज्य के कुछ भटके हुए लोगों को सही रास्ते पर लाने के प्रयास भारत की सरकार को ही करने होंगे परन्तु पाकिस्तान इस सूबे में आतंकवादी व जेहादी गतिविधियों के माध्यम से समस्या को उलझाना चाहता है। कश्मीर का चप्पा-चप्पा इस बात का गवाह रहा है कि इसकी फिजाओं में ‘हिन्दोस्तानियत’ दिलकश नग्मे सुनाती रही है। यहां मजहब का ‘तास्सुब’ तब भी सिर नहीं उठा सका जब ‘मजहब’ के नाम पर ही भारत के दो टुकड़े कर दिये गये थे। तब कश्मीर के लोगों ने ही पुरआवाज में कहा था कि ‘पाकिस्तान’ का तामीर किया जाना गलत है। जब पूरा हिन्दोस्तान पाकिस्तान के मुद्दे पर साम्प्रदायिक दंगों में खून से नहा रहा था तो यहीं के लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम करते हुए ऐलान किया था कि इस सूबे में ‘कश्मीरियत’ की वे ‘सदाएं’ ही गूजेंगी जिनका जिन्ना के ‘जुनूनी ख्वाब’ से कोई लेना-देना नहीं है मगर क्या सितम हुआ कि आज उसी कश्मीर में पाकिस्तान परस्त तंजीमें अपना खेल खुलकर खेल रही हैं और इंसानियत की पहरेदार भारतीय फौजों के खिलाफ यहां के शरीफ शहरियों को भड़का रही हैं।
ऐसे माहौल में गृहमन्त्री का यह ऐलान कि कश्मीर , कश्मीरी और कश्मीरियत सभी हिन्दोस्तान की कायनात के मकबूल हिस्से हैं और भारत इनकी पूरी हिफाजत करेगा। गौर करने वाली बात यह है कि मुल्क का बंटवारा होने के एकदम बाद पाकिस्तान ने ही कश्मीरियत को लहूलुहान करते हुए इस सूबे पर हमला किया था और कबायलियों की मदद से वादी में लूटपाट और कत्लोगारत का कोहराम मचाया था। अपने कश्मीर को जुल्मो-सितम से बचाने के लिए तब इस रियासत के महाराजा हरिसिंह ने भारत की केन्द्रीय सरकार से मदद की गुहार लगाई थी और इसे भारतीय संघ का हिस्सा बनाने का इकरारनामा लिखा था। तब भारत की फौजों ने कश्मीर की सरहद पर जाकर पाकिस्तानी खूंखारों को खदेड़ा था और कश्मीरी शहरियों की हिफाजत की थी। यह कश्मीरियत को बचाने की लड़ाई थी क्योंकि पाकिस्तान ने घाटी का दो-तिहाई हिस्सा कब्जा कर वहां खूनी खेल को अंजाम देना शुरू कर दिया था। कश्मीर को बचाने के लिए तब अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान से लडऩा भारत के फौजियों का कत्र्तव्य है। एक फौजी का धर्म दुश्मन से लडऩा होता है अत: भारत की फौज को अपना धर्म निभाना चाहिए। भारत की तरफ से कश्मीर में कश्मीरियत को जिन्दा रखने की यह पहली लड़ाई थी। इसके बाद से ही पूरा कश्मीर पाकिस्तान से पूरी तरह कट गया और यह भारतीय संघ का अटूट हिस्सा बन गया। अब इसकी रक्षा करना भारत का पहला फर्ज था। यह भी खुद में कम हैरतंगेज नहीं है कि आजाद भारत के पहले वजीरे आजम पं. नेहरू खुद कश्मीरी थे लेकिन यह भी हकीकत है कि कश्मीर का मामला उनके औहदे पर रहते ही बुरी तरह उलझा क्योंकि वह इसे लेकर राष्ट्र संघ चले गये।
इसके बावजूद कश्मीर के लोगों ने 1952 में भारत से किये गये इकरारनामे के मुताबिक अपनी संवैधानिक सभा का चुनाव वोट डाल कर किया और इस संविधान सभा ने शुरू की लाइनों में ही लिखा कि जम्मू-कश्मीर रियासत भारतीय संघ का हिस्सा है और यह भारतीय संविधान के दायरे में इसके अनुच्छेद 370 के तहत मिले अपने खास हकूकों के अख्तियार से अपना निजाम चलायेगी। यह कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत की हिफाजत का बोलता हुआ दस्तावेज है। बिना शक इस सूबे का अपना झंडा भी है मगर वह हिन्दोस्तान के आलमी झंडे का ताबेदार है। भारत ने कश्मीर को अपने जेरे साया लेकर इसके लोगों के हक और हुकूकों की गारंटी देते हुए साफ किया कि सूबे में उनकी अपनी हुकूमत होगी जिसकी हिफाजत हिन्दोस्तान की सरकार करेगी। कश्मीर पर कश्मीरियों का वाजिब हक होगा और उनकी तीमारदारी का जिम्मा हुकूमते हिन्द का होगा। क्या दुनिया में कहीं और इससे बेहतर इन्तजाम किसी सूबे के लिए किया जा सकता है? मगर इस सूबे के सियासतदानों ने जमीं के इस बहिश्त को दोजख में बदलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और पाकिस्तान परस्त एजेंटों को अपनी आंखों के सामने पनपने दिया। जरूरत इन्हीं पाक परस्त परिन्दों के पर कतरने की है। पाकिस्तान कश्मीर में मजहब को औजार बनाकर कश्मीरियत को खूंरेजी से तर-बतर करने की तजवीजें भिड़ा रहा है मगर अपनी हालत को नहीं देख रहा है कि वहां मजहब के नाम पर किस तरह पाकिस्तानियों को ही हलाक किया जा रहा है। अफसोस! कश्मीर में मौजूद हुर्रियत कान्फ्रेंस के कारकुन ऐसे ही हालात चाहते हैं और वह भी ‘इस्लाम’ के नाम पर!