गरीबों का खून पानी की तरह बिकता रहा है और उनकी किडनी भी किसी बीज की तरह बिक रही है। गरीब करे भी तो क्या। दो किडनी, दो आंखें और कुछ लीटर खून। इन्हीं गरीबों पर किडनी के दलालों की नजरें लगी रहती हैं। लोगों को याद होगा कि गुजरात का नडियाडवाला जिला, जहां सबसे पहले देश में किडनी ट्रांसप्लांट के नाम पर किडनी खरीद कर लगाने का भंडाफोड़ हुआ था, उसके बाद तो चेन्नई, मुम्बई, गुरुग्राम, दिल्ली और कई शहरों में किडनी कांड सामने आते रहे हैं लेकिन किडनी की खरीद-फरोख्त का धंधा आज भी जारी है। देहरादून के गंगोत्री चैरिटेबल अस्पताल में तीन दिन पहले किडनी के धंधे का पर्दाफाश हुआ और आरोपी पकड़े भी गए। लोगों की सहायतार्थ चलाए जाने वाले अस्पताल में अधर्म का धंधा चल रहा था। 50 हजार या एक लाख रुपए तक में जवान गरीबों के शरीर से निकाली गई किडनी को 50-70 लाख रुपए में बेचा जाता था। गिरोह के सदस्य किडनी की कीमत डालर और पाउंड में नहीं बल्कि भारतीय मुद्रा में ही वसूल करते थे।
हैरानी की बात तो यह है कि किडनी के अवैध व्यापार का आरोपी डा. अमित कुमार पहले भी गिरफ्तार हो चुका है। 1993 के मुम्बई में देश के अवैध किडनी प्रत्यारोपण कांड का सूत्रधार भी वही था। मुम्बई किडनी कांड में 1994 में उसे जमानत मिल गई थी। इसके बाद वह फरार हो गया। गुरुग्राम में किडनी प्रत्यारोपण मामले में भी डा. अमित को 2008 में गिरफ्तार किया गया था। तब उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद पुलिस की सूचना पर गुरुग्राम पुलिस ने उसकी कोठी पर छापा मारकर कई ऐसे युवक बाहर निकाले थे जिन्हें झांसा देकर वहां लाया गया था। उसके खिलाफ कई जगह केस दर्ज हैं लेकिन कोई भी कानून उसके इस काले धंधे को रोक नहीं पाया। उसके पास अरबों रुपए की सम्पत्ति है। एक अनुमान के मुताबिक अमित बीते वर्षों में 500 से ज्यादा किडनी बेच चुका है। उसने पूरे यूरोप, एशिया और खाड़ी देशों में नेटवर्क का जाल बिछा रखा था। विदेशी पर्यटन की आड़ में उत्तराखंड आते और फिर किडनी ट्रांसप्लांट कराते और चले जाते। हर बार पकड़े जाने के बाद वह जमानत लेकर कुछ देर भूमिगत रहता, फिर जगह बदलकर अपने गिरोह को सक्रिय करता। मानव अंगों का व्यापार कोई नई बात नहीं लेकिन इससे गरीब समाज की लाचारगी भी प्रकट होती है वहीं धन के लालच में ऐसी घटनाओं का सामने आना शर्मनाक है।
पैसे की हवस चिकित्सा जैसे पवित्र व्यवसाय को अनैतिक बाजार में बदलने का काम कर रही है। इस अवैध धंधे में नामी-गिरामी पांच सितारानुमा बड़े अस्पताल भी शामिल रहे हैं। यह कैसे संभव है कि राजनीतिक संरक्षण के बिना किडनी का प्रत्यारोपण मुमकिन हो जाए। पुलिस की मजबूरी यह है कि उसके हाथ गरीब और लाचार के गिरेबां से आगे नहीं बढ़ते। अगर वह प्रभावशाली लोगों को पकड़ भी लेती है तो वह कानून के लचीलेपन का लाभ उठाकर जमानत ले लेते हैं या बरी हो जाते हैं और फिर इस काले धंधे का कारोबार नए दलालों और डाक्टरों के जरिये चला लेते हैं। गरीबों को लालच देकर किडनी निकाली जाती है, बाद में उन्हें वायदे के मुताबिक पैसे भी नहीं दिए जाते। हमारी अदालतें कानून और जुर्म की पुष्टि के लिए सबूत के आधार पर फैसला करती हैं। इसमें मुख्य अपराध चोरी का है जो कि किडनी चोरी से सम्बन्धित है। सीबीआई को यह सिद्ध करना है कि चोरी की किडनी कहां है? किसी भी जांच एजैंसी के लिए यह मुश्किल काम है जब वह उसके कब्जे से निकाली गई किडनी बरामद कर उसे अदालत में सबूत के तौर पर पेश करे।
भारत में ऐसे कई लोग हैं जो निरीह लोगों की निकाली हुई किडनी अपने शरीर में लगाए हुए हैं। इनमें हर तरह के लोग शामिल हैं जिन्हें कसाई डाक्टरों ने पेशे को कलंकित कर दूसरों का जीवन संकट में डालकर जीवनदान दिया। न जाने डा. अमित जैसे कितने अमित इस देश में फैले हुए हैं। यह धंधा बिना योग्य सर्जन डाक्टरों के चल नहीं सकता, इसलिए कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि कितने सर्जन इस धंधे से जुड़े हुए हैं। मानव अंगों का प्रत्यारोपण चिकित्सा विज्ञान की अनूठी उपलब्धि है जिसने जीवन की आस खो चुके लोगों को फिर से जीवनदान दिया। कई लोग अपने अंगदान करके लोगों को जीवनदान दे चुके हैं। सरकार ने भी 2011 में कानून में संशोधन कर अंगदान का दायरा बढ़ाया था। दादा-दादी, नाना-नानी और चचेरे, ममेरे और अन्य रिश्तेदारों को भी अंगदान की अनुमति दे दी गई थी बशर्ते धन का कोई लेन-देन न हो लेकिन भारत में मानव अंगों का व्यापार सबसे ज्यादा होता है। कसाई डाक्टर धोखे से भिखारियों, रोगियों और बच्चों तक की किडनी निकाल रहे हैं। धार्मिक मान्यताओं और कुछ पूर्वाग्रहों के चलते लोग मृत्यु पश्चात अंगदान देने की इच्छा नहीं जताते जबकि मृत्यु के बाद गुर्दा, हृदय, लीवर, फेफड़े, आंखों समेत 37 अंग और ऊत्तक दान किए जा सकते हैं। यदि ऐसा हो जाए तो इस अवैध व्यापार में कमी आ सकती है। या फिर कानून इतने सख्त बनाए जाएं ताकि लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ न किया जा सके।