क्या जमाना बदला है कि पहले अदालतों से तारीख पर तारीख मिलने से लोग न्याय पाने की खातिर जवानी से बुढ़ापे में प्रवेश कर जाते थे वहीं अब लीक पर लीक होने से देश की युवा पीढ़ी इसी अवस्था में अपनी जवानी को कोस रही है और सोच रही है कि कब उसकी ‘परीक्षा’ कराने वाले लोग अपनी ‘परीक्षा’ पर खतरा उतरेंगे? मगर यहां तो जैसे किसी ने पूरे कुएं में भांग मिला कर ‘लीक’ करने का नया धंधा शुरू कर दिया है और युवा पीढ़ी को वही भांग मिला पानी पीने को मजबूर करने की ठान रखी है जो पूरे देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को नशेडि़यों की महफिल में बदल देना चाहता है। सनद रहनी चाहिए कि जब किसी देश की जवानी उठ कर खड़ी होती है तो बड़े से बड़े बादशाहों के तख्त हिल जाते हैं और उनके सिर पर लगे ताज अपनी बेरौनकी की दास्तान दरवाजे–दरवाजे सुनाने लगते हैं। एेसा हमने 1972 में शुरू में गुजरात के छात्र आन्दोलन में देखा था। इसके बाद हमने इसका फैलाव बिहार में होते देखा और फिर इसका विस्तार 1975 के आते–आते पूरे देश में जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के रूप में देखा। उस वक्त भी लोगों का सिर नहीं फिरा था कि वे छात्रों की मांगों के समर्थन में निकल कर सड़कों पर आ गये थे और उन्होंने उस आन्दोलन को भारत को बदलने का आन्दोलन बना दिया था। आज की नई पीढ़ी के जो युवा दसवीं और 12वीं के प्रश्नपत्र लीक होने को लेकर सड़कों पर आन्दोलन कर रहे हैं उनका लक्ष्य केवल पुन: परीक्षा देने से बचने का नहीं है बल्कि पूरी शिक्षा प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार आैर माफिया के प्रवेश के खिलाफ है। सीबीएसई के किसी विषय के एक प्रश्नपत्र लीक होने का सीधा मतलब है पूरे भारत और विदेशों तक में फैले इस परीक्षातन्त्र का असफल हो जाना और भारत की युवा पीढ़ी का भविष्य के इम्तहानों में बेआबरू हो जाना। जहां दसवीं की परीक्षा किसी भी छात्र के जीवन की आधारशिला होती है वहीं 12वीं की परीक्षा उसके उज्वल भविष्य के लिए उच्च शिक्षा में प्रवेश करने की पहली सीढ़ी होती है। जो तन्त्र और व्यवस्था इन दोनों पायदानों को मजबूत सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता उसे बरकरार रहने का कोई हक नहीं दिया जा सकता।
मगर यहां तो ऊपर से लेकर नीचे तक उलटी गंगा बहाई जा रही है और लोगों से कहा जा रहा है कि देखो देश कितना तरक्की कर गया कि हम डिजिटल दौर में प्रवेश कर गये हैं, पैसों का लेन-देन मोबाइल फोन पर कर रहे हैं। मगर हाई स्कूल और इंटरमीडियेट के विद्यार्थियों को यह विश्वास दिलाने में नाकाम है कि उनकी जो भी परीक्षा होगी वह उनकी कड़ी मेहनत का परिणाम ही होगी। उनके भविष्य के साथ कोई भी बेइमान सिर्फ पैसे के लिए खिलवाड़ नहीं कर सकेगा। मुझे नहीं मालूम कि पिछली मनमोहन सरकार के शिक्षा मन्त्री श्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार को जो मूलभूत अधिकार बनाया था उसका रंग–रूप इस कदर भी बिगड़ सकता है कि परीक्षा के प्रश्नपत्र ही लीक करके इस अधिकार को चन्द धनवान लोगों के कब्जे में डाल दिया जाये? जिस भारत की युवा पीढ़ी ने अपने ज्ञान के बूते पर पूरी दुनिया मेंं कम्प्यूटर साफ्टवेयर विद्या में सिरमौर बनने का सपना पूरा किया हो उसी के साथ आज की व्यवस्था एेसा निर्मम खेल खेल रही है कि कोई भी देश उसकी योग्यता को शक के घेरे में डाल सके। हमने जब आजादी के बाद भारत निर्माण का कार्य शुरू किया तो स्वतन्त्रता के युद्ध में अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने वाले लोगों ने हमें जो शिक्षा व्यवस्था सौंपी उसमें उच्च शिक्षा के हमने एेसे संस्थान कायम किये जिनकी साख को दुनिया के विकसित तक कहे जाने वाले देशों ने हमेशा ऊंचे पायदान पर रखा। मगर हमने आज इन सभी को बाजार की भेंट करके पैसे और धनपतियों का गुलाम बना दिया और सितम यह किया कि इनमें राजनीति को तिजारत बनाने वाले राजनीतिज्ञों को शिक्षा का कारोबार करने की खुली छूट दे दी।
हर चीज में मुनाफा देखने वालों की इस जमात के साये में युवा पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित रह ही नहीं सकता क्योंकि इनका लक्ष्य शिक्षा के प्रसार का नहीं बल्कि भारत के लोगों को जाहिल बनाये रखने का ही है, इसीलिए पूरी शिक्षा प्रणाली आज बाजार में किसी उपभोक्ता सामग्री की तरह बिक रही है और बेशर्मी के साथ इसकी नीलामी इस तरह हो रही है कि जिस व्यक्ति की जेब में धन है केवल वही शिक्षा अध्ययन के बारे में सोच सके। सरकारी स्कूलों को हमने लावारिस बना डाला है जबकि पत्थरों से बनी मूर्तियों पर हम हजारों करोड़ रुपये खर्च कर आम जनता को लगातार मुफलिसी में मुकद्दर के भरोसे छोड़ने की कोशिशों में रात–दिन इसलिए लगे हुए हैं जिससे उनमें कहीं वैज्ञानिक सोच न पनपने लगे। जरा कोई पूछे इन विकास के अहलकारों से कि क्या किसी गरीब का होनहार बेटा आज उच्च सिक्षा प्राप्त करने का अधिकार रखता है। बड़े जोर – शोर से कह दिया जाता है कि उच्च शिक्षा के लिए बैंकों से शिक्षा ऋण सुलभ है। मगर क्या कोई गरीब डाक्टरी की परीक्षा में एक साल के लिए 20 लाख रुपये का ऋण ले सकता है? उत्तराखंड की ‘गंगामुखी’ सरकार ने जो यह फैसला किया है वह केवल धनाढ्य वर्ग की सेवा करने के लिए ही लिया है।
पांच साल में एक करोड़ रुपये का कर्जा लेकर डाक्टर बनने वाला छात्र मरीज की सेवा करेगा या अपने ग्राहक को मूडने के तरीके निकालेगा। हालांकि मौलाना आजाद जैसे महान दूरदर्शी राजनीतिज्ञ ने भारत में इंजीनियरिंग कालेजों से लेकर मेडिकल विद्यालयों और सांस्कृतिक महाविद्यालयों और संस्थानों की नींव इस आधार पर रखी थी कि गरीब से गरीब परिवार का मेधावी छात्र भी इनमें आसानी से पहुंच सके और फीस के नाम पर उसके परिवार के सामने दिक्कत न आये मगर यहां तो गरीबों को ही समझाया जा रहा है कि तुम पढ़–लिख कर क्या करोगे। यहां तो दसवीं भी वही पास करेगा जिसकी जेब में लीक हुए पेपर को खरीदने की ताकत होगी। अतः छात्रों के आन्दोलन के विविध आयामों को जो लोग सीबीएसई तक सीमित करके देखना चाहते हैं वे वक्त की नब्ज को नहीं पकड़ सकते। यह देश समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया द्वारा दिये गये उस महामन्त्र को कभी नहीं भूल सकता जो उन्होंने देश की जनता को दिया था ,
राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान,
टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।