भारत में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। एक ओर भारत सर्वाधिक तेजी से विकास करने वाला देश माना जा रहा है लेकिन यह विकास रोजगारहीन है। हम अपने युवाओं को उनकी आशा के अनुरूप रोजगार नहीं दे पा रहे। युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकलने वाले युवा गुणवत्तापूर्ण रोजगार के लिए भटक रहे हैं और कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हैं। यही हाल मैनेजमेंट संस्थानों का है।
आज देश में चपरासी और अन्य चतुर्थ श्रेणी के पदों के लिए इंजीनियर और एमबीए छात्र आवेदन कर रहे हैं तो साफ है कि स्थिति कितनी भयावह है। यह भी कहा जा रहा है कि यहां कुशल और दक्ष युवाओं की कमी है। इंजीनियरिंग कॉलेज तो काफी बन्द हो चुके हैं और अब मैनेजमेंट संस्थान भी बन्द होते जा रहे हैं। देश के 100 से ज्यादा मैनेजमेंट संस्थानों ने स्वैच्छिक समापन के लिए अखिल भारतीय तकनीकी परिषद में आवेदन किया है।
इन संस्थानों का कहना है कि अब छात्र पढ़ने के लिए नहीं आ रहे और जिन छात्रों को डिग्री-डिप्लोमा मिल चुका है, उन्हें कैम्पस प्लेसमेंट के जरिये नौकरियां नहीं मिल रही हैं। यदि 100 से अधिक संस्थानों की स्वैच्छिक समापन की अपील स्वीकार कर ली गई तो इनके बन्द होने से 10 हजार सीटें खत्म हो जाएंगी। इनके अलावा कुछ संस्थानों ने न केवल मैनेजमेंट कोर्स के समापन की अपील की हुई है।
अगर उनके आवेदन भी स्वीकार कर लिए गए तो मैनेजमेंट की 11 हजार सीटें नहीं रहेंगी। भारत में एआईसीटीई द्वारा मान्यता प्राप्त 3 हजार मैनेजमेंट संस्थान हैं जहां एमबीए डिग्री और पोस्ट ग्रेेजुएट डिप्लोमा कराए जाते हैं। हाल ही के सालों में ये मैनेजमेंट संस्थान अधिकतर छात्रों को नौकरी नहीं दिलवा पाए हैं।
2016-17 में मात्र 47 फीसदी (करीब डेढ़ लाख) एमबीए ग्रेजुएट छात्रों को कैम्पस प्लेसमेंट के जरिये नौकरियां मिल पाई थीं। यह आंकड़ा पिछले वर्ष के मुकाबले 4 प्रतिशत कम था। यानी 2015-16 में 51 फीसदी छात्रों को नौकरियां मिली थीं। वहीं पोस्ट ग्रेजुएट छात्रों को नौकरी मिलने के 12 फीसदी तक की गिरावट आई है।
अलग-अलग विषयों की पढ़ाई करने के बाद नौकरियां नहीं मिलना एक गम्भीर समस्या है और मैनेजमेंट भी इससे प्रभावित है। अभिभावक अपने बच्चों को लाखों रुपए खर्च कर डिग्रियां दिलवाते हैं। मैनेजमेंट संस्थानों में एमबीए की सीट लेने के लिए भारी-भरकम फीस चुकानी पड़ती है।
जब वे अपने बच्चों को बेरोजगार घूमते देखते हैं तो हताश हो जाते हैं। जिन संस्थानों ने स्वैच्छिक समापन के लिए आवेदन किया है उनमें ज्यादातर संस्थान उत्तर प्रदेश के हैं। उत्तर प्रदेश के 37 संस्थान स्वैच्छिक समापन चाहते हैं जबकि कर्नाटक और महाराष्ट्र के 10-10 संस्थान हैं। 2016-17 आैर 2015-16 में भी क्रमशः 76 आैर 66 मैनेजमेंट संस्थान इसी तरह समाप्त कर दिए गए थे।आखिर बेरोजगारी की बढ़ती समस्या के कारण क्या है?
सबसे बड़ी बात ताे यह है कि देश के शिक्षा संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे रहे हैं। स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों में वर्षों से चले आ रहे पाठ्यक्रम ही जारी हैं जबकि उनमें आज की जरूरतों के अनुरूप विषयों पर जोर दिया जाना चाहिए।
आज बिग डाटा एनालिसिस आटोमेशन, इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी चीजों की बातें हो रही हैं। यह सोचने का समय है कि क्या हम शिक्षा व्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बना पाए हैं? युवा हमेशा नौकरियों के लिए सरकार का मुंह ताकते रहते हैं। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि युवा स्वरोजगार को बढ़ावा दें और खुद दूसरों को नौकरी देने वाला बने परन्तु सवाल यह है कि स्वरोजगार का माहौल कैसे बनाया जाए? रोजगार बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम नए विषयों पर ध्यान दें। हमें खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, विनिर्माण आदि श्रम बहुल क्षेत्रों पर ध्यान देना होगा।
जरूरत है बाजार और उद्योग की मांग के अनुरूप कौशल विकास करना होगा। बीए, एमए, इंजीनियर और एमबीए डिग्रीधारकों की फौज खड़ी करने का कोई फायदा नहीं। सरकार रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए बहुत कुछ कर रही है लेकिन सरकारी परियोजनाओं को पूरा होने में समय लगता है तब तक तो बेरोजगारों की नई फौज खड़ी हो जाएगी। शिक्षा के क्षेत्र में नए विषयों को शामिल करना जरूरी है। इंजीनियरिंग की सीटें तो खाली रहती ही थीं अब मैनेजमेंट संस्थान भी सिमटते जा रहे हैं।
संस्थान भी क्या करें, छात्र पढ़ने ही नहीं आएंगे तो व्यावसायिक दृष्टि से भी उन्हें चलाते रहना ठीक हीं। जब तक शिक्षा व्यवस्था का ढांचा नहीं बदलेगा, संस्थान सिमटते ही रहेंगे। वैसे भी प्राइवेट शिक्षा संस्थान तो लूट का अड्डा बन चुके हैं जो पैसा लेकर डिग्री तो पकड़ा देते हैं लेकिन कौशल विकास के नाम पर उनकी भूमिका शून्य है।