दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में जिस तरह विपक्षी पार्टी कांग्रेस की छात्र शाखा भारतीय राष्ट्रीय छात्र परिषदज् को सफलता मिली है उससे युवा वर्ग की बेचैनी का अंदाजा लगाया जा सकता है मगर इसके साथ ही सत्तारूढ़ भाजपा के भी दो प्रत्याशियों को इन चुनावों में सफलता मिली है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि युवा वर्ग जल्दबाजी में आर-पार का फैसला नहीं करना चाहता है और वह परिस्थितियों को बारीकी के साथ जांच-परख रहा है। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर कांग्रेस का कब्जा हो जाने से इतना तो कहा जा सकता है कि हवा का रुख भाजपा के पक्ष में एकतरफा नहीं रहा है। लगभग पांच वर्ष बाद कांग्रेस ने विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर कब्जा किया है। इसी से इन चुनावों की पूरी कैफियत समझी जा सकती है।
भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सचिव व सह सचिव के पदों पर जीत कर अपनी इज्जत बचाने में सफलता जरूर प्राप्त कर ली है मगर इसका पिछले पांच सालों से चला आ रहा दबदबा खत्म हो गया है। इससे पूर्व जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों में वामपंथी संगठनों को जबर्दस्त सफलता मिली थी। इससे भी यह स्पष्ट हो गया था कि इस विश्वविद्यालय के विवादास्पद हो जाने के बावजूद इसमें पढ़ने वाले छात्रों के विचारों को राष्ट्रवाद का झंडा फहरा कर प्रभावित नहीं किया जा सकता है और वे अपने निर्णय लेने में स्वयं सक्षम हैं। वैसे यह विश्वविद्यालय अपने जन्मकाल से ही वामपंथी विचारों की उर्वरक भूमि रहा है। इसके बावजूद इसने देश को एक से बढ़कर एक शिक्षाविद् और प्रशासक दिये हैं।
दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय भाजपा की विद्यार्थी परिषद का गढ़ रहा है और वर्तमान मोदी सरकार में वित्तमन्त्री अरुण जेतली राजनीति को इसी की देन हैं मगर आज सवाल इससे कहीं बड़ा है, क्योंकि भारत युवाओं का देश है जिसमें उन्हें अपना भविष्य बनाना है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली उन्हें किस भविष्य की ओर धकेल रही है इसका भी छात्रों को पूरा अनुमान है मगर इन छात्रों के लिए राजनीति महत्वपूर्ण विषय भारत के लोकतन्त्र में इसीलिए है, क्योंकि अन्ततः राजनीति ही देश की शिक्षा से लेकर आर्थिक और रक्षा नीतियों का निर्धारण करती है जिसके साथ आज के युवाओं का भविष्य सीधे-सीधे बन्धा रहता है। यह राजनीति ही है जो अन्ततः सामान्य आदमी से लेकर हर वर्ग और सम्प्रदाय और समुदाय के लोगों के जीवन को प्रभावित करती है आैर भारत की जातिगत विषमता से लेकर जातिगत खांचों में जन्म लेने वाले लोगों को प्रभावित करती है।
अतः विश्वविद्यालय किसी भी तौर पर विचारों को बांधकर किताबों में सिर खपाने वाली प्रयोगशाला नहीं बन सकते। ये लोकतन्त्र की प्राथमिक प्रयोगशालाएं ही हो सकती हैं इसी वजह से इनमें होने वाले छात्र संघ चुनावों का महत्व होता है और इनके नतीजे दूरगामी असर डालते हैं। यदि ऐसा न होता तो अंग्रेजी शासन के समय गुलाम भारत में विश्वविद्यालयों से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह की चिंगारियां न फूटती और लाखों युवक अपने भविष्य की परवाह किये बिना भारत को स्वतन्त्र कराने की कसमें न खाते लेकिन स्वतन्त्र भारत में युवा पीढ़ी का सपना भारत को नये वैज्ञानिक युग में प्रवेश कराते हुए रूढ़ीवादिता की जंजीरों में जकड़े भारत को मुक्त कराकर विश्व के साथ स्पर्धा करने का है। यह दुखद स्थिति है कि हमने जब से शिक्षा का निजीकरण अंधाधुंध तरीके से किया है, विशेषकर उच्च शिक्षा का, तब से महाविद्यालय और शिक्षण संस्थान धन कमाने के कारखाने बन गये हैं और पूंजी के बल पर उच्च शिक्षा पाने का व्यापार फल-फूल रहा है।
हकीकत तो यह है कि हमारी बाजार अर्थव्यवस्था ने गरीब आदमी से उच्च शिक्षा पाने का अधिकार छीन लिया है। हमने जिस विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की संरचना की थी वह भी निजीकरण के भय से थरथरा रहा है। इसके बावजूद भारत की यह विशेषता रही है कि हर संकट की घड़ी में युवा वर्ग ने ही आगे बढ़कर नई राह पर मशाल पकड़ी है। यदि ऐसा न होता तो भारत की युवा पीढ़ी आज किस प्रकार कम्प्यूटर साफ्टवेयर के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करती ? युवा पीढ़ी किसी भी देश की धड़कन होती है। वह देश कभी तरक्की नहीं कर सकता जिसकी युवा पीढ़ी सोई रहती है। अतः राजनीतिक दलों द्वारा अपनी-अपनी छात्र शाखाएं स्थापित करना देश की इसी धड़कन को छूने का प्रयास होती है जिससे वे खुद को समय की चाल के साथ मिलाकर चल सकें। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव परिणामों का यही निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। कांग्रेस के विजयी अध्यक्ष रॉकी तो दिल्ली उच्च न्यायालय से अपनी उम्मीदवारी का प्रमाण लेकर आये थे। इसी से सिद्ध होता है कि लोकतन्त्र किस तरह राजनीति का पाठ पढ़ाता है।