क्या मजा आ रहा है कर्नाटक में कि लोकतन्त्र एक सूरदास की तरह चौराहे पर खड़ा होकर हर आने-जाने वाले से अपना पता पूछ रहा है और अपने असबाब की गठरी सिर पर रखकर पसीने-पसीने हो रहा है। किस अन्दाज से सूबे के नये मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा ने अपने औहदे की कसम पढ़ी है कि पूरी सियासत की सांसें फूल रही हैं और भाजपा का हर विधायक सोच रहा है कि किस अन्दाज से बहार आयी है। आधी रात को मुल्क की सबसे ऊंची अदालत अपने दरो-दीवार खोलकर लोकतन्त्र का तसकरा कर रही है।
माफ कीजिये इसके लिए लोगों ने धूप में खड़े होकर वोट नहीं डाला था। यह सनद रहनी चाहिए कि लोकतन्त्र में बहुमत का शासन होता है और इस बहुमत को केवल और केवल वैध व जायज तरीके से जुटाने की हिदायत भारत के संविधान में बहुत साफगोई के साथ कही गई है। जब प्रत्येक मतदाता को बेखौफ और बिना लालच के अपना वोट डालने की गारंटी चुनाव आयोग देता है तो उससे निकले नतीजों की बुनियाद पर जो भी सरकार बनेगी उसका आधार भी यही होगा और यही काम करने की जिम्मेदारी प्रदेशों के राज्यपाल की होती है।
सवाल न भाजपा का है न कांग्रेस या जनता दल (एस) का बल्कि सवाल संसदीय प्रणाली के पहले सिद्धान्त बहुमत की सरकार के काबिज होने का है। राज्यपाल का यह संवैधानिक दायित्व होता है कि वह एेसे ही दल या दलों के गठबन्धन को सबसे पहले सरकार बनाने की दावत दें जो स्थायी सरकार दे सके और जिसके बहुमत की बुनावट में किसी भी प्रकार के अवैध तरीकों का किसी भी स्तर पर इस्तेमाल न किया गया हैं। इसके साथ ही राज्यपाल पर यह भी जिम्मेदारी होती है कि वह जल्दी से जल्दी किसी भी नई सरकार को विधानसभा के भीतर अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए कहें जिससे वह उस जिम्मेदारी से मुक्त हो सकें जो चुनावों के बाद उन पर जनता की चुनी हुई सरकार स्थापित करने की होती है। राज्यपाल का विवेक संविधान की व्यवस्था से ही निकलता है और यह इसकी मर्यादाओं से निर्देशित होता है।
विवेक का अर्थ मनमानी नहीं होता बल्कि बुद्धि से उपजा तर्क मानक होता है। मनमानी के लिए भारत के संविधान में कोई जगह नहीं है। जाहिर है राज्यपाल किसी दूसरी दुनिया से नहीं आते हैं बल्कि वे इसी लोकतान्त्रिक प्रणाली के भीतर से आते हैं, जिसका यह मूल सिद्धान्त होता है कि स्वतन्त्र संवैधानिक पदों पर बैठे लोग दलगत राजनीति को तिलांजिल देकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करेंगे। इसी तराजू पर राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल और चुनाव आयोग आदि संस्थाओं के मुखियाओं की तस्दीक भारत का संविधान करता है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1996 में उत्तर प्रदेश में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह के इस्तीफा दिये बगैर ही श्री जगदम्बिका पाल को नये मुख्यमन्त्री पद की शपथ इस आधार पर दिला थी कि उनके साथ बहुमत आ गया है तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ में राजभवन के दरवाजे पर ही धरने पर बैठ गये थे और उन्होंने कहा था कि ‘खेल के नियम नहीं बदल सकते। जो नियम अन्य पार्टियों के लिए हैं वे ही भाजपा के लिए भी होंगे।’ जाहिर है कि कर्नाटक में भाजपा विरोधी पार्टियों ने खेल उन्हीं नियमों के तहत खेला जो गोवा में सरकार बनाते वक्त भाजपा ने खेला था मगर भारत के लोकतन्त्र की ताकत को जो लोग कम करके आंकने की गलती करते हैं वे इसकी उस खूबसूरत चौखम्भा राज की तस्वीर को पहचानने में गफलत कर जाते हैं जो विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और चुनाव आयोग से मिलकर बनी है।
कर्नाटक में चल रहे नाटक के दौरान जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने कांग्रेस व जनता दल (एस) की अर्जी पर आधी रात को अदालत खुलवा कर सुनवाई करने का हुक्म दिया उससे पता लग जाता है कि इस मुल्क में आखिरकार हुकूमत होगी तो कानून की ही होगी। यह सब इस हकीकत के बावजूद हुआ कि कुछ दिनों पहले कांग्रेस ने ही मुख्य न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए महाभियोग चलाने की मुिहम छेड़ी थी। इससे साबित होता है कि हमारा लोकतन्त्र कानून के आगे निजी हस्ती को कुछ नहीं समझता। एेसा केवल भारत में ही हो सकता है क्योंकि संविधान लिखने वाले बाबा साहेब अम्बेडकर ने हमारे हाथों में कानून की एेसी किताब दी है जिसमें ऊंचे से ऊंचे औहदेदार की कारगुजारी को संविधान की चौखट से होकर गुजरना पड़ता है।
अतः यह बेवजह नहीं है कि जो काम श्री येदियुरप्पा को सरकार बनाने की दावत देते वक्त खुद राज्यपाल को करना चाहिए था वह काम अब सर्वोच्च न्यायालय करेगा। आधी रात को संविधान की जय बोलते हुए इस सबसे बड़ी अदालत के तीन न्यायमूर्तियों ने श्री येिदयुरप्पा को हुक्म दिया कि वह यह बताने का कष्ट करें कि मौजूदा चुने हुए विधायकों के स्पष्ट राजनैतिक समूहों की गिनती के बीच से वह अपने 104 विधायकों की संख्या को 112 तक कैसे पहुंचायेंगे जिससे उनका विधानसभा में बहुमत साबित हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने वह चिट्ठी तलब की है जिसे येदियुरप्पा ने राज्यपाल को दिया था और जवाब में राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने की दावत दी थी।
एेसी ही चिट्ठी न्यायमूर्तियों ने कांग्रेस व जनता दल (एस) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी से भी मांगी है जो उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश करते हुए राज्यपाल को दी थी। दूध का दूध और पानी का पानी 18 मई को ही हो जायेगा। इससे यह पता चल जायेगा कि येदियुरप्पा बहुमत जुटाने के लिए कौन से तरीके अपनायेंगे? और कुमारस्वामी के साथ कितने विधायक जुड़े रहेंगे। विधायकों की खरीद-फरोख्त का पर्दाफाश होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हमारे लोकतन्त्र की यही खूबी है कि जब कोई संस्था भटकने लगती है तो दूसरी संस्था खड़ी होकर उसे सही रास्ते पर डाल देती है। राजनैतिक दलों में जनादेश का मतलब निकालने के मुद्दे पर बहस चालू रह सकती है मगर कानून को इस बारे में कोई गफलत नहीं है।