दहेज विरोधी कड़े कानून उस दौर की उपज है जब बहुओं को ससुराल में जिंदा जलाने की घटनाओं में बाढ़ सी आ गई थी। उस समय बस यही पुकार थी कि ऐसे सख्त कानून बनाये जायें कि बहुओं को जिंदा जलाने का सिलसिला रोका जा सके। इन कानूनों का इतना फायदा भी हुआ कि दहेज के लिय हत्याओं में बहुत अधिक कमी आ गई लेकिन जल्दबाजी में बनाये गये कानूनों के संदर्भ में यह ख्याल ही नहीं रखा गया कि इनका दुरुपयोग भी हो सकता है। दरअसल इन कानूनों के तहत महिलाओं को इतने ज्यादा अधिकार दे दिये गये कि इनका दुरुपयोग होने लगा। यह कानून महिलाओं को यह अधिकार देते हैं कि वह जो शिकायत करे उसको गलत साबित करने की जिम्मेदारी उसके पति और ससुरालियों पर होगी। यानी महिला को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि वह जो शिकायत कर रही है वह साक्ष्यों पर आधारित है। जाहिर है ऐसी स्थिति में कानून का दुरुपयोग हो सकता है।
पुलिस ने भी इसे लोगों को परेशान करने का हथियार बना लिया। काफी समय से यह मांग जोर पकड़ रही थी कि विधायिका इन कानूनों पर पुनर्विचार करके आवश्यक संशोधन करे ताकि इनके दुरुपयोग को रोका जा सके। 2010 में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत मुकद्दमों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया था कि उनके सामने इस किस्म की शिकायतें बड़ी संख्या में आती हैं जिनमें से अधिकांश निराधार होती हैं और जिन्हें गलत इरादों से दर्ज कराया गया होता है। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 3 जुलाई 2014 को एक अहम आदेश पारित किया था और कहा था कि दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच ने पुलिस को यह हिदायत भी दी थी कि दहेज उत्पीडऩ के केस में आरोपी की गिरफ्तारी सिर्फ जख्मी.. होने पर की जाये।
आदेश में यह भी कहा गया था कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस कयास के आधार पर नहीं हो सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया होगा। गिरफ्तारी तभी की जाये जब इस बात का पर्याप्त सबूत हो कि आरोपी के आजाद रहने से मामले की जांच प्रभावित हो सकती है या वह कोई और अपराध कर सकता है या फरार हो सकता है लेकिन पुलिस भी लोगों की गिरफ्तारियां करती रही। कई मामलों में यह भी देखा गया कि महिला ने अपनी शिकायत में पति और रिश्तेदारों को भी शामिल कर लिया जो दूसरे शहर में रहते थे और बामुश्किल ही उनसे मिलने आते थे। कभी-कभी तो आपराधिक ट्रायल खत्म होने के बाद भी सच को जान पाना कठिन हो जाता है। कई मामलों में पति और रिश्तेदारों को भी जेल में रहना पड़ा, जिससे संबन्धों में इतनी कड़वाहट आ जाती है कि आपसी बातचीन में या शांतिपूर्ण तरीके से समस्या के समाधान के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट ने फिर आदेश दिया है कि आईपीसी की धारा 498ए यानी दहेज प्रताडऩा के मामले में गिरफ्तारी सीधे नहीं होगी। शीर्ष न्यायालय ने एक आधी बात यह कही है कि दहेज प्रताडऩा के मामले को देखने के लिये हर जिले में एक परिवार कल्याण समिति बनाई जाये और समिति की रिपोर्ट आने के बाद ही गिरफ्तारी होनी चाहिए। उससे पहले नहीं। उसने लीगल सर्विस अथारिटी से कहा है कि परिवार कल्याण समिति में सिविल सोसायटी के लोग भी शामिल हों। जस्टिस ए.के. गोयल और जस्टिय यू.यू. ललित की बेंच ने कहा कि अगर महिला जख्मी हो या फिर उसकी प्रताडऩा से मौत हो जाये तो ऐसे मामलों में गिरफ्तारी पर रोक नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से विचारधारा में परिवर्तन संभावित है, महज उस संस्कृति पर विराम लगाने का प्रयास है जिसमें यह समझा जाना है कि केवल महिलाएं ही पीडि़त हैं और महिलायें झूठी शिकायतें दर्ज कराने में असक्षम हैं। इस आदेश से महिला और पुरुष बराबरी पर आ जाते हैं कि दोनों ही झूठ और साजिश में शामिल हो सकते हैं। कहने का अर्थ यह है कि कहीं अगर महिला पीडि़त है तो कहीं पुरुष। आज वक्त बहुत बदल चुका है। जीवन शैली में बहुत परिवर्तन आ गया है। युवक-युवतियां लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रहे हैं। शादी उनके लिये कोई बंधन नहीं, रिश्तों का कोई बोझ नहीं लेकिन समाज को यह भी देखना होगा कि शादी जैसा बंधन अब भी उपयोगी है। छोटे-मोटे झगड़े, अहम का टकराव तो पति-पत्नी में होते ही रहते हैं लेकिन रिश्ते टूटने नहीं चाहिए। परिवार बने लेकिन बिखरे नहीं। इसकी पहल सिविल सोसायटी को करनी होगी। जिला स्तरीय समितियां या मोहल्ला स्तरीय समितियां रिश्तों को जोडऩे का प्रयास करें अन्यथा परिवार टूटते रहेंगे तो उन्हें जोडऩा मुश्किल होगा। पुलिस और न्याय व्यवस्था को यह देखना होगा कि सच क्या है तभी दहेज विरोधी कानूनों का दुरुपयोग बंद होगा।